पुछिहहिं दीन दुखित सब माता अयोध्या काण्ड

पुछिहहिं दीन दुखित सब माता अयोध्या काण्ड

पुछिहहिं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता।।
पूछिहि जबहिं लखन महतारी। कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी।।
राम जननि जब आइहि धाई। सुमिरि बच्छु जिमि धेनु लवाई।।
पूँछत उतरु देब मैं तेही। गे बनु राम लखनु बैदेही।।
जोइ पूँछिहि तेहि ऊतरु देबा।जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा।।
पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना। जिवनु जासु रघुनाथ अधीना।।
देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई। आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई।।
सुनत लखन सिय राम सँदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू।।
दो0–ह्रदउ न बिदरेउ पंक जिमि बिछुरत प्रीतमु नीरु।।
जानत हौं मोहि दीन्ह बिधि यहु जातना सरीरु।।146।।
 
इस प्रसंग में अयोध्या काण्ड के अंतर्गत भरत का गहन शोक और राम के प्रति उनकी भक्ति का मार्मिक चित्रण है। भरत अपनी व्यथा व्यक्त करते हैं कि जब माताएँ, विशेषकर सुमित्रा और कौसल्या, राम और लक्ष्मण के बारे में पूछेंगी, तो वे क्या जवाब देंगे। वे सोचते हैं कि दशरथ, जिनका जीवन राम के अधीन था, को राम के वनवास का संदेश सुनकर क्या होगा। यह शोक भरत के हृदय में राम, परिवार, और कर्तव्य के प्रति गहरे प्रेम को दर्शाता है।

भरत का यह कहना कि वह अयोध्या लौटकर कोई सुख नहीं ले सकता और विधि ने उन्हें यह कष्टमय शरीर दिया है, उनके मन की पीड़ा और आत्मचिंतन को प्रकट करता है। उनकी यह भावना कि राम के बिना उनका जीवन तृण के समान है, सच्चे भक्त की वह अवस्था है, जहाँ प्रभु के बिना सब कुछ व्यर्थ प्रतीत होता है। यह प्रसंग यह भी सिखाता है कि सांसारिक दायित्व और प्रेम के बीच संतुलन कितना कठिन हो सकता है।

यह प्रसंग मनुष्य को प्रेरित करता है कि दुख और विपत्ति में भी प्रभु का स्मरण और उनके प्रति भक्ति ही मन को संबल देती है। भरत की तरह, जो अपने कर्तव्य और प्रेम में उलझे हैं, मनुष्य को भी प्रभु की इच्छा को स्वीकार कर धैर्य रखना चाहिए। राम का नाम और उनकी शरण ही वह शक्ति है, जो हर हृदय के दुख को कम करती है और जीवन को अर्थ प्रदान करती है। यह प्रसंग हर भक्त को प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण और विश्वास की प्रेरणा देता है।
 
एहि बिधि करत पंथ पछितावा। तमसा तीर तुरत रथु आवा।।
बिदा किए करि बिनय निषादा। फिरे पायँ परि बिकल बिषादा।।
पैठत नगर सचिव सकुचाई। जनु मारेसि गुर बाँभन गाई।।
बैठि बिटप तर दिवसु गवाँवा। साँझ समय तब अवसरु पावा।।
अवध प्रबेसु कीन्ह अँधिआरें। पैठ भवन रथु राखि दुआरें।।
जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए। भूप द्वार रथु देखन आए।।
रथु पहिचानि बिकल लखि घोरे। गरहिं गात जिमि आतप ओरे।।
नगर नारि नर ब्याकुल कैंसें। निघटत नीर मीनगन जैंसें।।
दो0–सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु।
भवन भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु।।147।।
–*–*–
अति आरति सब पूँछहिं रानी। उतरु न आव बिकल भइ बानी।।
सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहाँ नृप तेहि तेहि बूझा।।
दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई। कौसल्या गृहँ गईं लवाई।।
जाइ सुमंत्र दीख कस राजा। अमिअ रहित जनु चंदु बिराजा।।
आसन सयन बिभूषन हीना। परेउ भूमितल निपट मलीना।।
लेइ उसासु सोच एहि भाँती। सुरपुर तें जनु खँसेउ जजाती।।
लेत सोच भरि छिनु छिनु छाती। जनु जरि पंख परेउ संपाती।।
राम राम कह राम सनेही। पुनि कह राम लखन बैदेही।।
दो0-देखि सचिवँ जय जीव कहि कीन्हेउ दंड प्रनामु।
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु।।148।।
–*–*–
भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई।।
सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी।।
राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही।।
आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए।।
सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू। कहु सिय राम लखन संदेसू।।
राम रूप गुन सील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ।।
राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू।।
सो सुत बिछुरत गए न प्राना। को पापी बड़ मोहि समाना।।
दो0-सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ।।149।।
–*–*–
पुनि पुनि पूँछत मंत्रहि राऊ। प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ।।
करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ।।
सचिव धीर धरि कह मुदु बानी। महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी।।
बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा।।
जनम मरन सब दुख भोगा। हानि लाभ प्रिय मिलन बियोगा।।
काल करम बस हौहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं।।
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।।
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी।।
दो0-प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर।
न्हाई रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर।।150।।
–*–*–
Next Post Previous Post