अयोध्या काण्ड-13 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Ayodhya Kand in Hindi तुलसी दास राम चरित मानस अयोध्या काण्ड

राम चरित मानस अयोध्या काण्ड तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में | raam charit maanas ayodhya kaand

पुछिहहिं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता।।
पूछिहि जबहिं लखन महतारी। कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी।।
राम जननि जब आइहि धाई। सुमिरि बच्छु जिमि धेनु लवाई।।
पूँछत उतरु देब मैं तेही। गे बनु राम लखनु बैदेही।।
जोइ पूँछिहि तेहि ऊतरु देबा।जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा।।
पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना। जिवनु जासु रघुनाथ अधीना।।
देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई। आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई।।
सुनत लखन सिय राम सँदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू।।
दो0–ह्रदउ न बिदरेउ पंक जिमि बिछुरत प्रीतमु नीरु।।
जानत हौं मोहि दीन्ह बिधि यहु जातना सरीरु।।146।।
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एहि बिधि करत पंथ पछितावा। तमसा तीर तुरत रथु आवा।।
बिदा किए करि बिनय निषादा। फिरे पायँ परि बिकल बिषादा।।
पैठत नगर सचिव सकुचाई। जनु मारेसि गुर बाँभन गाई।।
बैठि बिटप तर दिवसु गवाँवा। साँझ समय तब अवसरु पावा।।
अवध प्रबेसु कीन्ह अँधिआरें। पैठ भवन रथु राखि दुआरें।।
जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए। भूप द्वार रथु देखन आए।।
रथु पहिचानि बिकल लखि घोरे। गरहिं गात जिमि आतप ओरे।।
नगर नारि नर ब्याकुल कैंसें। निघटत नीर मीनगन जैंसें।।
दो0–सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु।
भवन भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु।।147।।
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अति आरति सब पूँछहिं रानी। उतरु न आव बिकल भइ बानी।।
सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहाँ नृप तेहि तेहि बूझा।।
दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई। कौसल्या गृहँ गईं लवाई।।
जाइ सुमंत्र दीख कस राजा। अमिअ रहित जनु चंदु बिराजा।।
आसन सयन बिभूषन हीना। परेउ भूमितल निपट मलीना।।
लेइ उसासु सोच एहि भाँती। सुरपुर तें जनु खँसेउ जजाती।।
लेत सोच भरि छिनु छिनु छाती। जनु जरि पंख परेउ संपाती।।
राम राम कह राम सनेही। पुनि कह राम लखन बैदेही।।
दो0-देखि सचिवँ जय जीव कहि कीन्हेउ दंड प्रनामु।
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु।।148।।
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भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई।।
सहित सनेह निकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भरि बारी।।
राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही।।
आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए।।
सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू। कहु सिय राम लखन संदेसू।।
राम रूप गुन सील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ।।
राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू।।
सो सुत बिछुरत गए न प्राना। को पापी बड़ मोहि समाना।।
दो0-सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ।।149।।
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पुनि पुनि पूँछत मंत्रहि राऊ। प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ।।
करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ। रामु लखनु सिय नयन देखाऊ।।
सचिव धीर धरि कह मुदु बानी। महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी।।
बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा।।
जनम मरन सब दुख भोगा। हानि लाभ प्रिय मिलन बियोगा।।
काल करम बस हौहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं।।
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।।
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी।।
दो0-प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर।
न्हाई रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर।।150।।
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