अयोध्या काण्ड-12 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Ayodhya Kand in Hindi तुलसी दास राम चरित मानस अयोध्या काण्ड

राम चरित मानस अयोध्या काण्ड तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में | raam charit maanas ayodhya kaand

नयनवंत रघुबरहि बिलोकी। पाइ जनम फल होहिं बिसोकी।।
परसि चरन रज अचर सुखारी। भए परम पद के अधिकारी।।
सो बनु सैलु सुभायँ सुहावन। मंगलमय अति पावन पावन।।
महिमा कहिअ कवनि बिधि तासू। सुखसागर जहँ कीन्ह निवासू।।
पय पयोधि तजि अवध बिहाई। जहँ सिय लखनु रामु रहे आई।।
कहि न सकहिं सुषमा जसि कानन। जौं सत सहस होंहिं सहसानन।।
सो मैं बरनि कहौं बिधि केहीं। डाबर कमठ कि मंदर लेहीं।।
सेवहिं लखनु करम मन बानी। जाइ न सीलु सनेहु बखानी।।
दो0–छिनु छिनु लखि सिय राम पद जानि आपु पर नेहु।
करत न सपनेहुँ लखनु चितु बंधु मातु पितु गेहु।।139।।
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राम संग सिय रहति सुखारी। पुर परिजन गृह सुरति बिसारी।।
छिनु छिनु पिय बिधु बदनु निहारी। प्रमुदित मनहुँ चकोरकुमारी।।
नाह नेहु नित बढ़त बिलोकी। हरषित रहति दिवस जिमि कोकी।।
सिय मनु राम चरन अनुरागा। अवध सहस सम बनु प्रिय लागा।।
परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा। प्रिय परिवारु कुरंग बिहंगा।।
सासु ससुर सम मुनितिय मुनिबर। असनु अमिअ सम कंद मूल फर।।
नाथ साथ साँथरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई।।
लोकप होहिं बिलोकत जासू। तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू।।
दो0–सुमिरत रामहि तजहिं जन तृन सम बिषय बिलासु।
रामप्रिया जग जननि सिय कछु न आचरजु तासु।।140।।
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सीय लखन जेहि बिधि सुखु लहहीं। सोइ रघुनाथ करहि सोइ कहहीं।।
कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी।
जब जब रामु अवध सुधि करहीं। तब तब बारि बिलोचन भरहीं।।
सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेहु सीलु सेवकाई।।
कृपासिंधु प्रभु होहिं दुखारी। धीरजु धरहिं कुसमउ बिचारी।।
लखि सिय लखनु बिकल होइ जाहीं। जिमि पुरुषहि अनुसर परिछाहीं।।
प्रिया बंधु गति लखि रघुनंदनु। धीर कृपाल भगत उर चंदनु।।
लगे कहन कछु कथा पुनीता। सुनि सुखु लहहिं लखनु अरु सीता।।
दो0-रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत।
जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत।।141।।
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जोगवहिं प्रभु सिय लखनहिं कैसें। पलक बिलोचन गोलक जैसें।।
सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि।।
एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी। खग मृग सुर तापस हितकारी।।
कहेउँ राम बन गवनु सुहावा। सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा।।
फिरेउ निषादु प्रभुहि पहुँचाई। सचिव सहित रथ देखेसि आई।।
मंत्री बिकल बिलोकि निषादू। कहि न जाइ जस भयउ बिषादू।।
राम राम सिय लखन पुकारी। परेउ धरनितल ब्याकुल भारी।।
देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं।।
दो0-नहिं तृन चरहिं पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि।
ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि।।142।।
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धरि धीरज तब कहइ निषादू। अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू।।
तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता
बिबिध कथा कहि कहि मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी।।
सोक सिथिल रथ सकइ न हाँकी। रघुबर बिरह पीर उर बाँकी।।
चरफराहिँ मग चलहिं न घोरे। बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे।।
अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें। राम बियोगि बिकल दुख तीछें।।
जो कह रामु लखनु बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही।।
बाजि बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहि भाँती।।
दो0-भयउ निषाद बिषादबस देखत सचिव तुरंग।
बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी संग।।143।।
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गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई। बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई।।
चले अवध लेइ रथहि निषादा। होहि छनहिं छन मगन बिषादा।।
सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना।।
रहिहि न अंतहुँ अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू।।
भए अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहिं करत पयाना।।
अहह मंद मनु अवसर चूका। अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका।।
मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई। मनहँ कृपन धन रासि गवाँई।।
बिरिद बाँधि बर बीरु कहाई। चलेउ समर जनु सुभट पराई।।
दो0-बिप्र बिबेकी बेदबिद संमत साधु सुजाति।
जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भाँति।।144।।
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जिमि कुलीन तिय साधु सयानी। पतिदेवता करम मन बानी।।
रहै करम बस परिहरि नाहू। सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहु।।
लोचन सजल डीठि भइ थोरी। सुनइ न श्रवन बिकल मति भोरी।।
सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी। जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी।।
बिबरन भयउ न जाइ निहारी। मारेसि मनहुँ पिता महतारी।।
हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी। जमपुर पंथ सोच जिमि पापी।।
बचनु न आव हृदयँ पछिताई। अवध काह मैं देखब जाई।।
राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई।।
दो0–धाइ पूँछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नर नारि।
उतरु देब मैं सबहि तब हृदयँ बज्रु बैठारि।।145।।
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