भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे अयोध्या काण्ड

भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे अयोध्या काण्ड

भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे।।
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे।।
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी।।
भरतहि कहहि सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही।।
तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू।।
जो पावँरु अपनी जड़ताई। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई।।
सो सठु कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप सत नरक निकेता।।
अहि अघ अवगुन नहि मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई।।
दो0-अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह।
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह।।184।।
 
इस प्रसंग में अयोध्या काण्ड के अंतर्गत भरत के वचनों का प्रभाव और उनके राम के प्रति अनन्य प्रेम का सुंदर चित्रण है। भरत के शब्द, जो राम के स्नेह से ओतप्रोत हैं, सुनने वालों के लिए अमृत के समान हैं। यह कथन दर्शाता है कि सच्चा प्रेम और भक्ति हृदय को शांति और प्रेरणा देती है। लोग, जो राम के वियोग के विष से दग्ध हैं, भरत की बातों को सुनकर मानो जीवित हो उठते हैं, जैसे मंत्र और बीज से नया जीवन जागृत होता है।

माता, सचिव, गुरु, और नगर के नर-नारी सभी भरत के प्रेम में डूबकर उनकी प्रशंसा करते हैं। वे भरत को राम के प्रेम की मूर्ति मानते हैं, जो यह सिखाता है कि सच्चा भक्त प्रभु के प्रेम को अपने जीवन में धारण करता है। भरत से यह प्रश्न कि वे अपनी भक्ति को क्यों छिपाते हैं, उनके विनम्र स्वभाव को उजागर करता है। जो लोग कैकेयी की कुटिलता को भरत से जोड़ते हैं, उन्हें नरक का भागी बताया गया है, जो यह सिखाता है कि सत्य और प्रेम को समझे बिना दोषारोपण पाप है।

यह प्रसंग मनुष्य को प्रेरित करता है कि सच्चा प्रेम और भक्ति ही जीवन का सच्चा आधार है। जैसे भरत के वचन शोक के सागर में डूबते लोगों को अवलंबन देते हैं, वैसे ही मनुष्य को भी प्रभु के प्रति निष्ठा और प्रेम से दूसरों को प्रेरित करना चाहिए। भरत का राम के प्रति प्रेम यह सिखाता है कि प्रभु का भक्त बनकर ही जीवन सार्थक होता है। राम का नाम और उनकी भक्ति ही वह शक्ति है, जो हर दुख को हरकर मन को आलोकित करती है।
 
भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा।।
चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के।।
मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर बिदा कराई।।
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं।।
कहहि परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू।।
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी।।
कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहइ जग जीवन लाहू।।
दो0-जरउ सो संपति सदन सुखु सुहद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ।।185।।
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घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना।।
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू।।
संपति सब रघुपति कै आही। जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही।।
तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साइँ दोहाई।।
करइ स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई।।
अस बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले।।
कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहि लायक सो तेहिं राखा।।
करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे।।
दो0-आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान।
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान।।186।।
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चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी।।
जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना।।
कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहिं राजू।।
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे।।
अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ।।
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना।।
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना।।
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भई सब रानी।।
दो0-सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ।।187।।
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राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी।।
बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं।।
देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे।।
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली।।
तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी।।
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू।।
सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई।।
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू।।
दो0-पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग।।188।।
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सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने।।
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा।।
कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं।।
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई।।
जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी।।
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी।।
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा।।
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं।।
दो0-अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु।।189।।
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