अयोध्या काण्ड-17 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Ayodhya Kand in Hindi तुलसी दास राम चरित मानस अयोध्या काण्ड

 राम चरित मानस अयोध्या काण्ड तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में | raam charit maanas ayodhya kaand 

भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे।।
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे।।
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी।।
भरतहि कहहि सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही।।
तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू।।
जो पावँरु अपनी जड़ताई। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई।।
सो सठु कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप सत नरक निकेता।।
अहि अघ अवगुन नहि मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई।।
दो0-अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह।
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह।।184।।
–*–*–
भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा।।
चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के।।
मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर बिदा कराई।।
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं।।
कहहि परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू।।
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी।।
कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहइ जग जीवन लाहू।।
दो0-जरउ सो संपति सदन सुखु सुहद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ।।185।।
–*–*–
घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना।।
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू।।
संपति सब रघुपति कै आही। जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही।।
तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साइँ दोहाई।।
करइ स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई।।
अस बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले।।
कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहि लायक सो तेहिं राखा।।
करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे।।
दो0-आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान।
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान।।186।।
–*–*–
चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी।।
जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना।।
कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहिं राजू।।
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे।।
अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ।।
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना।।
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना।।
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भई सब रानी।।
दो0-सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ।।187।।
–*–*–
राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी।।
बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं।।
देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे।।
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली।।
तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी।।
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू।।
सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई।।
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू।।
दो0-पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग।।188।।
–*–*–
सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने।।
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा।।
कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं।।
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई।।
जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी।।
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी।।
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा।।
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं।।
दो0-अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु।।189।।
Next Post Previous Post
No Comment
Add Comment
comment url