लंका काण्ड-17 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Lanka Kand in Hindi तुलसी दास राम चरित मानस लंका काण्ड

सुनत बिभीषन बचन राम के। हरषि गहे पद कृपाधाम के।।
बानर भालु सकल हरषाने। गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने।।
बहुरि बिभीषन भवन सिधायो। मनि गन बसन बिमान भरायो।।
लै पुष्पक प्रभु आगें राखा। हँसि करि कृपासिंधु तब भाषा।।
चढ़ि बिमान सुनु सखा बिभीषन। गगन जाइ बरषहु पट भूषन।।
नभ पर जाइ बिभीषन तबही। बरषि दिए मनि अंबर सबही।।
जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं। मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं।।
हँसे रामु श्री अनुज समेता। परम कौतुकी कृपा निकेता।।
दो0-मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद।
कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद।।117(क)।।
उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम।
राम कृपा नहि करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम।।117(ख)।।
 
भालु कपिन्ह पट भूषन पाए। पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए।।
नाना जिनस देखि सब कीसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा।।
चितइ सबन्हि पर कीन्हि दाया। बोले मृदुल बचन रघुराया।।
तुम्हरें बल मैं रावनु मार् यो। तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार् यो।।
निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू। सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू।।
सुनत बचन प्रेमाकुल बानर। जोरि पानि बोले सब सादर।।
प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा। हमरे होत बचन सुनि मोहा।।
दीन जानि कपि किए सनाथा। तुम्ह त्रेलोक ईस रघुनाथा।।
सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं। मसक कहूँ खगपति हित करहीं।।
देखि राम रुख बानर रीछा। प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा।।
दो0-प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि।
हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि।।118(क)।।
कपिपति नील रीछपति अंगद नल हनुमान।
सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान।।118(ख)।।
दो0- कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि।
सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि।।118(ग)।।
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अतिसय प्रीति देख रघुराई। लिन्हे सकल बिमान चढ़ाई।।
मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो। उत्तर दिसिहि बिमान चलायो।।
चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहइ सबु कोई।।
सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठै ता पर।।
राजत रामु सहित भामिनी। मेरु सृंग जनु घन दामिनी।।
रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर। कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर।।
परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी। सागर सर सरि निर्मल बारी।।
सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा। मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा।।
कह रघुबीर देखु रन सीता। लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता।।
हनूमान अंगद के मारे। रन महि परे निसाचर भारे।।
कुंभकरन रावन द्वौ भाई। इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई।।
दो0-इहाँ सेतु बाँध्यो अरु थापेउँ सिव सुख धाम।
सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम।।119(क)।।
जहँ जहँ कृपासिंधु बन कीन्ह बास बिश्राम।
सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम।।119(ख)।।




तुरत बिमान तहाँ चलि आवा। दंडक बन जहँ परम सुहावा।।
कुंभजादि मुनिनायक नाना। गए रामु सब कें अस्थाना।।
सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा। चित्रकूट आए जगदीसा।।
तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा। चला बिमानु तहाँ ते चोखा।।
बहुरि राम जानकिहि देखाई। जमुना कलि मल हरनि सुहाई।।
पुनि देखी सुरसरी पुनीता। राम कहा प्रनाम करु सीता।।
तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत जन्म कोटि अघ भागा।।
देखु परम पावनि पुनि बेनी। हरनि सोक हरि लोक निसेनी।।
पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि। त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि।।।
दो0-सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम।।120(क)।।
पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह।
कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह।।120(ख)।।
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प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई।।
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम्ह चलि आएहु।।
तुरत पवनसुत गवनत भयउ। तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ।।
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही। अस्तुती करि पुनि आसिष दीन्ही।।
मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी। चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी।।
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए। नाव नाव कहँ लोग बोलाए।।
सुरसरि नाघि जान तब आयो। उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो।।
तब सीताँ पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी।।
दीन्हि असीस हरषि मन गंगा। सुंदरि तव अहिवात अभंगा।।
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल। आयउ निकट परम सुख संकुल।।
प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही। परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही।।
प्रीति परम बिलोकि रघुराई। हरषि उठाइ लियो उर लाई।।
छं0-लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापती।
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती।
अब कुसल पद पंकज बिलोकि बिरंचि संकर सेब्य जे।
सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते।।1।।
सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो।
मतिमंद तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो।।
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा।
कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा।।2।।
दो0-समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान।।121(क)।।
यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार।
श्रीरघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार।।121(ख)।।
मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम
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इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
षष्ठः सोपानः समाप्तः।
(लंकाकाण्ड समाप्त)
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