जानिये प्रेणादायक कबीर साहेब के दोहे
जानिये प्रेणादायक कबीर साहेब के दोहे अर्थ सहित
हस्ती चढ़िये ज्ञान की, सहज दुलीचा डार ।
श्वान रूप संसार है, भूकन दे झक मार ॥
या दुनिया दो रोज की, मत कर या सो हेत ।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख हेत ॥
श्वान रूप संसार है, भूकन दे झक मार ॥
या दुनिया दो रोज की, मत कर या सो हेत ।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख हेत ॥
कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर ।
खाली हाथों वह गये, जिनके लाख करोर ॥
सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान ।
निरगुन सरगुन के परे, तहीं हमारा ध्यान ॥
घन गरजै, दामिनि दमकै, बूँदैं बरसैं, झर लाग गए।
हर तलाब में कमल खिले, तहाँ भानु परगट भये॥
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा ॥
कस्तुरी कुँडली बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ |
ऎसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ ||
प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय |
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय ||
माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर |
कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर ||
माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर |
आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर ||
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद |
खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ||
वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर |
परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर ||
साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय |
तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय ||
सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार |
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार ||
जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं |
ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं ||
मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ |
कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ||
तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय |
कबहुँ उड़न आखन परै, पीर घनेरी होय ||
बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि |
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि ||
ऐसी बानी बोलिए,मन का आपा खोय |
औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय ||
लघता ते प्रभुता मिले, प्रभुत ते प्रभु दूरी |
चिट्टी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी ||
निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय |
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय ||
मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं |
मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं ||
खाली हाथों वह गये, जिनके लाख करोर ॥
सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान ।
निरगुन सरगुन के परे, तहीं हमारा ध्यान ॥
घन गरजै, दामिनि दमकै, बूँदैं बरसैं, झर लाग गए।
हर तलाब में कमल खिले, तहाँ भानु परगट भये॥
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा ॥
कस्तुरी कुँडली बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ |
ऎसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ ||
प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय |
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय ||
माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर |
कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर ||
माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर |
आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर ||
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद |
खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ||
वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर |
परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर ||
साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय |
तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय ||
सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार |
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार ||
जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं |
ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं ||
मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ |
कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ||
तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय |
कबहुँ उड़न आखन परै, पीर घनेरी होय ||
बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि |
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि ||
ऐसी बानी बोलिए,मन का आपा खोय |
औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय ||
लघता ते प्रभुता मिले, प्रभुत ते प्रभु दूरी |
चिट्टी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी ||
निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय |
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय ||
मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं |
मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं ||
हस्ती चढ़िये ज्ञान की, सहज दुलीचा डार। श्वान रूप संसार है, भूकन दे झक मार॥
ज्ञान के हाथी पर सवार होकर, सहजता की पालकी में बैठो। यह संसार कुत्ते के समान है, जो भौंकता रहता है, पर उसकी बातों का कोई महत्व नहीं।
ज्ञान के हाथी पर सवार होकर, सहजता की पालकी में बैठो। यह संसार कुत्ते के समान है, जो भौंकता रहता है, पर उसकी बातों का कोई महत्व नहीं।
या दुनिया दो रोज की, मत कर या सो हेत। गुरु चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख हेत॥
यह दुनिया दो दिन की है, इससे अधिक मोह मत रखो। गुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुख का कारण है।
कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर। खाली हाथों वह गये, जिनके लाख करोर॥
कबीर कहते हैं, यह शरीर जा रहा है, यदि संभव हो तो इसे बचा लो। वे लोग भी खाली हाथ गए, जिनके पास लाखों-करोड़ों थे।
सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान। निरगुन सरगुन के परे, तहीं हमारा ध्यान॥
सगुण (साकार) की सेवा करो और निर्गुण (निराकार) का ज्ञान प्राप्त करो। हमारा ध्यान उस परमात्मा पर है, जो सगुण और निर्गुण दोनों से परे है।
घन गरजै, दामिनि दमकै, बूँदैं बरसैं, झर लाग गए। हर तलाब में कमल खिले, तहाँ भानु परगट भये॥
बादल गरजते हैं, बिजली चमकती है, बूंदें बरसती हैं, और झरने बहने लगते हैं। हर तालाब में कमल खिलते हैं, वहां सूर्य प्रकट होता है।
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा। जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा॥
काशी हो या बंजर मगहर, मेरे हृदय में राम बसे हैं। यदि काशी में शरीर त्याग भी दूं, तो राम को क्या उपकार होगा?
कस्तुरी कुँडली बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ। ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ॥
कस्तूरी हिरण की नाभि में होती है, लेकिन हिरण उसे जंगल में खोजता है। उसी प्रकार, राम हर हृदय में बसे हैं, पर दुनिया उन्हें बाहर खोजती है।
प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय। राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय॥
प्रेम न तो खेतों में उगता है, न ही बाजार में बिकता है। राजा हो या प्रजा, जो भी इसे चाहता है, उसे अपना सिर (अहंकार) देकर ही प्राप्त कर सकता है।
माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर। कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर॥
माला फेरते हुए युग बीत गए, लेकिन मन का भ्रम नहीं मिटा। हाथ की माला छोड़कर, मन की माला फेरो।
माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर। आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर॥
न तो माया मरी, न मन मरा, शरीर बार-बार मरता है। आशा और तृष्णा नहीं मरी, ऐसा कबीर कहते हैं।
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद। खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद॥
झूठे सुख को ही सुख मानकर मन प्रसन्न होता है। यह संसार काल का आहार है, कुछ उसके मुख में है, और कुछ गोद में।
वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर। परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर॥
वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते, नदी अपना जल नहीं संचित करती। परोपकार के लिए ही साधु ने यह शरीर धारण किया है।
साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय। तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय॥
साधु महान परोपकारी होते हैं, जो धन के समान बरसते हैं। वे दूसरों की तपन बुझाते हैं और अपने साथ पारस (ज्ञान) लाते हैं।
सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार। दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार॥
सज्जन व्यक्ति सोने के समान हैं, जो सौ बार टूटकर भी जुड़ जाते हैं। जबकि दुर्जन कुम्हार के घड़े के समान हैं, जो एक ही चोट से दरार खा जाते हैं।
जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं। ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं॥
जहां साधु की पूजा नहीं होती और हरि की सेवा नहीं होती, वे घर श्मशान के समान हैं, जहां भूत निवास करते हैं।
ज्ञान को हाथी पर चढ़ने जैसा बताया गया है—एक बार जब मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो संसार का भौतिक आकर्षण उसके लिए केवल भ्रम रह जाता है। यह संसार क्षणभंगुर है, दो दिन का खेल है, और इसे अंतिम सत्य मानने वाला केवल अज्ञान में ही जीता है।
कबीर साहेब बताते हैं कि यह देह नश्वर है। कोई कितना भी धन अर्जित कर ले, अंत में सब खाली हाथ ही जाता है। सच्ची पूँजी तो आत्मज्ञान और भक्ति में है, जो मनुष्य को शाश्वत शांति प्रदान करती है।
सरगुण और निरगुण की चर्चा मनुष्य को यह सिखाती है कि परमात्मा को केवल भौतिक रूपों में ही नहीं देखा जा सकता, बल्कि उसकी चेतना को आत्मसात करना ही वास्तविक भक्ति है। बारिश के बाद तालाबों में खिला कमल इस बात का प्रतीक है कि जीवन में कठिनाइयों के बाद भी दिव्यता का प्रकाश संभव है।
उनके दोहों में प्रेम का महत्व दर्शाया गया है—प्रेम न तो खेतों में उगता है, न बाजार में बिकता है। सच्चा प्रेम त्याग और बलिदान में ही प्रकट होता है। माला फेरने मात्र से मन की विकृतियाँ समाप्त नहीं होतीं, बल्कि सच्ची साधना भीतर से करनी होती है।
झूठे सुखों के पीछे भागना मात्र भ्रम है। समय की चक्की में संसार का हर प्राणी पिसता है, और जो इस सत्य को समझकर साधुता का मार्ग अपनाता है, वही मुक्त होता है। वृक्ष स्वयं अपने फल नहीं खाता, और नदी अपने जल का संचय नहीं करती—इसी प्रकार, जो सच्चा साधु होता है, वह केवल दूसरों का हित सोचता है।
कबीर साहेब साधुता और सज्जनता को सोने के समान बताते हैं—जो बार-बार टूटने के बाद भी जुड़ जाता है। वहीं, दुर्जन मनुष्य एक बार घात होने पर छिन्न-भिन्न हो जाता है। ज्ञान से विहीन घर को उन्होंने श्मशान के समान कहा है, और मूर्खों की संगति को अनर्थकारी बताया है।
उनकी वाणी हमें यह सिखाती है कि तिनके को भी तुच्छ न समझो, क्योंकि जब वह आँख में पड़ता है, तब असहनीय पीड़ा होती है। वाणी के महत्व को स्पष्ट करते हुए, वे सिखाते हैं कि बोली को सोच-समझकर बोलना चाहिए, क्योंकि मधुर वाणी दूसरों को और स्वयं को शीतलता प्रदान करती है।
निंदकों को पास में रखने की सीख भी दी गई है—वे बिना साबुन-पानी के स्वभाव को निर्मल बना देते हैं। अंत में, मानसरोवर के जल में हंसों की केलि को मुक्त आत्मा का प्रतीक बताया गया है, जो ज्ञान रूपी मोतियों को चुनते हैं और आत्मिक संतोष प्राप्त करते हैं।
इन दोहों का सार है कि आत्मज्ञान, प्रेम, मधुर वाणी, साधुता और भक्ति ही जीवन का सच्चा मार्ग है। यह संसार केवल एक क्षणिक ठहराव है, परंतु जो इसे आत्मज्ञान के माध्यम से देखता है, वही शाश्वत सत्य को प्राप्त करता है।
कबीर साहेब बताते हैं कि यह देह नश्वर है। कोई कितना भी धन अर्जित कर ले, अंत में सब खाली हाथ ही जाता है। सच्ची पूँजी तो आत्मज्ञान और भक्ति में है, जो मनुष्य को शाश्वत शांति प्रदान करती है।
सरगुण और निरगुण की चर्चा मनुष्य को यह सिखाती है कि परमात्मा को केवल भौतिक रूपों में ही नहीं देखा जा सकता, बल्कि उसकी चेतना को आत्मसात करना ही वास्तविक भक्ति है। बारिश के बाद तालाबों में खिला कमल इस बात का प्रतीक है कि जीवन में कठिनाइयों के बाद भी दिव्यता का प्रकाश संभव है।
उनके दोहों में प्रेम का महत्व दर्शाया गया है—प्रेम न तो खेतों में उगता है, न बाजार में बिकता है। सच्चा प्रेम त्याग और बलिदान में ही प्रकट होता है। माला फेरने मात्र से मन की विकृतियाँ समाप्त नहीं होतीं, बल्कि सच्ची साधना भीतर से करनी होती है।
झूठे सुखों के पीछे भागना मात्र भ्रम है। समय की चक्की में संसार का हर प्राणी पिसता है, और जो इस सत्य को समझकर साधुता का मार्ग अपनाता है, वही मुक्त होता है। वृक्ष स्वयं अपने फल नहीं खाता, और नदी अपने जल का संचय नहीं करती—इसी प्रकार, जो सच्चा साधु होता है, वह केवल दूसरों का हित सोचता है।
कबीर साहेब साधुता और सज्जनता को सोने के समान बताते हैं—जो बार-बार टूटने के बाद भी जुड़ जाता है। वहीं, दुर्जन मनुष्य एक बार घात होने पर छिन्न-भिन्न हो जाता है। ज्ञान से विहीन घर को उन्होंने श्मशान के समान कहा है, और मूर्खों की संगति को अनर्थकारी बताया है।
उनकी वाणी हमें यह सिखाती है कि तिनके को भी तुच्छ न समझो, क्योंकि जब वह आँख में पड़ता है, तब असहनीय पीड़ा होती है। वाणी के महत्व को स्पष्ट करते हुए, वे सिखाते हैं कि बोली को सोच-समझकर बोलना चाहिए, क्योंकि मधुर वाणी दूसरों को और स्वयं को शीतलता प्रदान करती है।
निंदकों को पास में रखने की सीख भी दी गई है—वे बिना साबुन-पानी के स्वभाव को निर्मल बना देते हैं। अंत में, मानसरोवर के जल में हंसों की केलि को मुक्त आत्मा का प्रतीक बताया गया है, जो ज्ञान रूपी मोतियों को चुनते हैं और आत्मिक संतोष प्राप्त करते हैं।
इन दोहों का सार है कि आत्मज्ञान, प्रेम, मधुर वाणी, साधुता और भक्ति ही जीवन का सच्चा मार्ग है। यह संसार केवल एक क्षणिक ठहराव है, परंतु जो इसे आत्मज्ञान के माध्यम से देखता है, वही शाश्वत सत्य को प्राप्त करता है।
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