देना हो तो दे दे सांवरे क्यों ज्यादा तरसावे भजन

देना हो तो दे दे सांवरे क्यों ज्यादा तरसावे से

देना हो तो दे दे साँवरे,
क्यों ज्यादा तरसावे सै,
ना देना तो साफ नाट,
क्यों लखदातार कहावे सै।

काट काट के चक्कर,
मैं तो तेरे दर के हार लिया,
मैं ना पिंड तेरा इब छोड़ूं,
मने मन में पक्का धार लिया,
भगत तेरा भूखा सोवे,
तू छप्पन भोग उड़ावे से,
ना देना तो साफ़ नाट,
क्यों लखदातार कहावे सै।

तेरे भंडारे में कमी नहीं,
यो दुनिया सारी का,
भगत तेरा दुःख पावे,
तो के फायदा साहूकारी का,
लेन देन का जीकर करे ना,
मने बात्या में बहकावे से,
ना देना तो साफ़ नाट,
क्यों लखदातार कहावे सै।

तन्ने देना पड़े जरुरी,
मैं जिद्दी घणा अनाड़ी सु,
बाबा सेठ तू नंबर वन से,
तो मैं नंबर एक भिखारी हूँ,
सब भगता के आगे क्यों,
तू अपनी पोल खुलावे से,
ना देना तो साफ़ नाट,
क्यों लखदातार कहावे सै।

मैं हर ग्यारस ने बाबा,
तेरे धाम पे चलके आऊं सूं,
फोकट में कोन्या मांगू,
तेरे नए नए भजन सुनाऊं सूं,
क्यों ‘भीमसेन’ ने देवण में,
तू कंजूसी दिखलावे से,
ना देना तो साफ़ नाट,
क्यों लखदातार कहावे सै।

देना हो तो दे दे साँवरे,
क्यों ज्यादा तरसावे सै,
ना देना तो साफ नाट,
क्यों लखदातार कहावे सै। 


यह सुन्दर भजन एक भक्त के निर्मल समर्पण, उसकी जिद और उसकी ईश्वरीय प्रेम की गहराई को प्रदर्शित करता है। जब कोई साधक अपने आराध्य से कोई याचना करता है, तो उसमें केवल शब्द नहीं होते, बल्कि एक हृदय की पुकार होती है—वह पुकार जो श्रद्धा की गहराइयों से निकलती है।

यह भाव श्रीश्यामजी के प्रति उस विश्वास को प्रकट करता है, जहां भक्त को पूर्ण भरोसा है कि उसकी याचना व्यर्थ नहीं जाएगी। भंडार असीम है, कृपा अनंत है, और जब कोई सच्चे भाव से पुकारता है, तब वह पुकार एक दिव्य आशीर्वाद में बदल जाती है।

यह अनुभूति यह भी दर्शाती है कि भक्त केवल संसार के चमत्कारों का इच्छुक नहीं, बल्कि वह अपने प्रिय आराध्य की निकटता को प्राप्त करने की आकांक्षा रखता है। समर्पण की इस गहराई में कोई संकोच नहीं होता—बल्कि केवल प्रेम की अनवरत प्रवाह होता है, जहां भक्त अपनी स्थिति को नकारते हुए, स्वयं को पूर्ण रूप से प्रभु के चरणों में अर्पित कर देता है।

यह भजन यह भी बताता है कि प्रेम और भक्ति का यह मार्ग कोई सौदेबाजी नहीं, बल्कि एक निश्छल भावना का विस्तार है। जब श्रद्धा अडिग रहती है, तब कोई भी प्रार्थना खाली नहीं जाती—यह विश्वास भक्त को उस राह पर बनाए रखता है, जहां समर्पण सर्वोच्च उपलब्धि बन जाता है। यही वह पावन भाव है, जहां भक्त और प्रभु का संबंध प्रेम के दिव्य प्रकाश में आलोकित होता है।

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Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

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