सांवरिया म्हाने खाटू बुला ल्यो
सांवरिया म्हाने खाटू बुला ल्यो
सांवरिया म्हानेखाटू बुला ल्यो जी,
फागण का रसियां
खाटू बुला ल्यो जी,
फागणियो आय गया,
सांवरियां गिरधारी।
पंचरंगी थारो निशान,
बढ़ा स्या जी,
और चाँदी को छतर,
ऊपर लगवा सया जी,
फागणियो आय गया,
सांवरियां गिरधारी।
सतरंगी थाने पागो
पहरास्या जी,
सोने की नक्काशी
ऊपर करवा सा जी,
फागणियो आय गया,
सांवरियां गिरधारी।
थारो सुंदर सुंदर,
गजरो बनवा स्या जी,
केशर मोगर चम्पा,
ज्या पे, इतर चढ़ा सा जी,
फागणियो आय गया,
सांवरियां गिरधारी।
थाने दाल चूरमो,
रुचके जीमा स्या जी,
सब भक्ता मिल कर के,
थारा लाड लड़ा स्या जी,
फागणियो आय गया,
सांवरियां गिरधारी।
थारे लाल गुलाबी,
रंग लगा स्या जी,
गींदड़ करता बाबा,
ठाणे भजन सुना जा सी,
फागणियो आय गया,
सांवरियां गिरधारी।
सांवरिया म्हाने
खाटू बुला ल्यो जी,
फागण का रसियां
खाटू बुला ल्यो जी,
फागणियो आय गया,
सांवरियां गिरधारी।
फागण का रसियां
खाटू बुला ल्यो जी,
फागणियो आय गया,
सांवरियां गिरधारी।
पंचरंगी थारो निशान,
बढ़ा स्या जी,
और चाँदी को छतर,
ऊपर लगवा सया जी,
फागणियो आय गया,
सांवरियां गिरधारी।
सतरंगी थाने पागो
पहरास्या जी,
सोने की नक्काशी
ऊपर करवा सा जी,
फागणियो आय गया,
सांवरियां गिरधारी।
थारो सुंदर सुंदर,
गजरो बनवा स्या जी,
केशर मोगर चम्पा,
ज्या पे, इतर चढ़ा सा जी,
फागणियो आय गया,
सांवरियां गिरधारी।
थाने दाल चूरमो,
रुचके जीमा स्या जी,
सब भक्ता मिल कर के,
थारा लाड लड़ा स्या जी,
फागणियो आय गया,
सांवरियां गिरधारी।
थारे लाल गुलाबी,
रंग लगा स्या जी,
गींदड़ करता बाबा,
ठाणे भजन सुना जा सी,
फागणियो आय गया,
सांवरियां गिरधारी।
सांवरिया म्हाने
खाटू बुला ल्यो जी,
फागण का रसियां
खाटू बुला ल्यो जी,
फागणियो आय गया,
सांवरियां गिरधारी।
यह सुन्दर भजन श्रद्धा, उल्लास और खाटू श्यामजी की दिव्य कृपा का भाव जगाता है। जब भक्त फागण के इस पावन अवसर पर प्रभु के दरबार में उपस्थित होता है, तब उसकी आत्मा प्रेम और आनंद के रंगों में रंग जाती है। यह भक्ति केवल आराधना नहीं, बल्कि हृदय की उस गहरी पुकार का प्रकट रूप है, जहां प्रेम स्वयं भक्ति में परिवर्तित हो जाता है।
पंचरंगी निशान और चाँदी के छत्र का उल्लेख इस बात को दर्शाता है कि भक्ति केवल आंतरिक नहीं, बल्कि बाहरी भावों के माध्यम से भी अभिव्यक्त होती है। जब भक्त श्रद्धा से यह प्रतीक लेकर चलता है, तब यह केवल एक अनुष्ठान नहीं, बल्कि प्रेम और समर्पण का जीवंत प्रमाण बन जाता है।
वस्त्रों की शोभा, गजरे की सुगंध और भक्ति की उत्सवमयी धारा यह बताती है कि साधक जब इस परम आनंद में डूब जाता है, तब हर सांस, हर क्रिया केवल प्रभु के स्मरण में लीन हो जाती है। यह अनुभूति केवल बाहरी उत्सव नहीं, बल्कि उस आंतरिक उल्लास का विस्तार है, जहां भक्ति का प्रवाह भक्त को परम शांति की ओर ले जाता है।
भोजन, प्रेम और संगति—यह सब केवल सांसारिक नहीं, बल्कि ईश्वरीय कृपा का ही अंश हैं। जब भक्त श्रीश्यामजी के चरणों में आता है, तब वह न केवल अपनी आत्मा को संतुष्ट करता है, बल्कि अपने पूरे जीवन को इस भक्ति की मिठास से भर देता है। यही वह दिव्य अनुभूति है, जहां भक्ति केवल शब्दों में नहीं, बल्कि साधक के संपूर्ण अस्तित्व में गूँजती है। यही वह प्रेम है, जो हर विघ्न को समाप्त कर देता है और भक्त को सच्ची दिव्यता की अनुभूति कराता है।