कोई देखोरे मैया मीरा बाई पदावली

कोई देखोरे मैया मीरा बाई पदावली

कोई देखोरे मैया
कोई देखोरे मैया। शामसुंदर मुरलीवाला॥टेक॥
जमुनाके तीर धेनु चरावत। दधी घट चोर चुरैया॥१॥
ब्रिंदाजीबनके कुंजगलीनमों। हमकू देत झुकैया॥२॥
ईत गोकुल उत मथुरा नगरी। पकरत मोरी भय्या॥३॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरणकमल बजैया॥४॥
 
श्रीकृष्ण की अलौकिक लीला हर भाव में प्रेम और माधुर्य की गहनतम अनुभूति उत्पन्न करती है। जब उनकी छवि गोकुल, मथुरा और वृंदावन की गलियों में मन को मोहित करती है, तब यह केवल दृश्य नहीं रह जाता—यह तो आत्मा की पुकार बन जाती है, जो हर क्षण उनके सान्निध्य की इच्छा से आंदोलित होती है।

जमुना के तट पर धेनु चराते श्रीकृष्ण केवल एक बालक नहीं, बल्कि प्रेम और भक्ति की वह जीवंत प्रतिमूर्ति हैं, जो समस्त हृदयों को आनंद से भर देती है। उनकी मुरली की ध्वनि केवल संगीत नहीं, बल्कि आत्मा को स्पंदित करने वाला मधुर आह्वान है। जब यह माधुर्य गोपियों के मन को मोह लेता है, तब उनके लिए अन्य कोई सत्य नहीं रह जाता—सिर्फ श्रीकृष्ण का नाम और उनके चरणों में अर्पित प्रेम।

मीराँ की भक्ति इसी अनुराग की पराकाष्ठा है। जब साधक का प्रेम संपूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब उसमें कोई द्वंद्व नहीं रहता—केवल उस अखंड श्रद्धा और समर्पण की धारा, जो साधक को ईश्वर में पूर्णतः विलीन कर देती है। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में पूर्ण रूप से समाहित हो जाते हैं। जब आत्मा इस भावना को पहचान लेती है, तब उसके लिए कोई अन्य सत्य नहीं रह जाता—सिर्फ प्रभु के चरणों की अनवरत स्मृति।

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अच्छे मीठे फल चाख चाख, बेर लाई भीलणी।
ऎसी कहा अचारवती, रूप नहीं एक रती।
नीचे कुल ओछी जात, अति ही कुचीलणी।
जूठे फल लीन्हे राम, प्रेम की प्रतीत त्राण।
उँच नीच जाने नहीं, रस की रसीलणी।
ऎसी कहा वेद पढी, छिन में विमाण चढी।
हरि जू सू बाँध्यो हेत, बैकुण्ठ में झूलणी।
दास मीरां तरै सोई, ऎसी प्रीति करै जोइ।
पतित पावन प्रभु, गोकुल अहीरणी।

अजब सलुनी प्यारी मृगया नैनों। तें मोहन वश कीधो रे॥ध्रु०॥
गोकुळ मां सौ बात करेरे बाला कां न कुबजे वश लीधो रे॥१॥
मनको सो करी ते लाल अंबाडी अंकुशे वश कीधो रे॥२॥
लवींग सोपारी ने पानना बीदला राधांसु रारुयो कीनो रे॥३॥
मीरां कहे प्रभु गिरिधर नागर चरणकमल चित्त दीनो रे॥४॥

अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥

अब तो निभायाँ सरेगी, बांह गहेकी लाज।
समरथ सरण तुम्हारी सइयां, सरब सुधारण काज॥
भवसागर संसार अपरबल, जामें तुम हो झयाज।
निरधारां आधार जगत गुरु तुम बिन होय अकाज॥
जुग जुग भीर हरी भगतन की, दीनी मोच्छ समाज।
मीरां सरण गही चरणन की, लाज रखो महाराज॥

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