पानी में मीन प्यासी भजन

पानी में मीन प्यासी भजन

पानी में मीन प्यासी
पानी में मीन प्यासी।
मोहे सुन सुन आवत हांसी॥
आत्मज्ञानबिन नर भटकत है।
कहां मथुरा काशी॥१॥
भवसागर सब हार भरा है।
धुंडत फिरत उदासी॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर।
सहज मिळे अविनशी॥३॥
 
प्रभु के बिना आत्मा की तड़प उस मछली सी है, जो पानी में रहकर भी प्यासी रहती है। संसार का यह भवसागर माया और हानि से भरा है, जहाँ मन उदास भटकता है, मथुरा-काशी की खोज में थक जाता है। आत्मज्ञान का अभाव ही यह भटकन है, पर सच्चा सुख सहज भक्ति में है, जो अविनाशी प्रभु से मिलन कराती है। यह प्रेम वह ठिकाना है, जो मन को शांति देता है।

जैसे भोर में गाँव जागता है, गोपियों के कंगनों की झनकार और ग्वाल-बालों का कोलाहल प्रभु को पुकारता है। यह पुकार उस भक्त की है, जो प्रभु को जगाकर उनके दर्शन माँगता है। रजनी बीत गई, अब मिलन का समय है। शरण में आए भक्त का उद्धार करना, गिरधर का स्वभाव है।

मन को प्रभु की शरण में रखो, क्योंकि उनकी कृपा ही वह नौका है, जो भवसागर पार कराती है। सहज प्रेम और भक्ति से चरणों में लीन हो जाओ, वही सच्चा मार्ग है, जो आत्मा को अविनाशी से जोड़ता है। 
 
जागो बंसी वारे जागो मोरे ललन।
रजनी बीती भोर भयो है घर घर खुले किवारे।
गोपी दही मथत सुनियत है कंगना के झनकारे।
उठो लालजी भोर भयो है सुर नर ठाढ़े द्वारे ।
ग्वाल बाल सब करत कोलाहल जय जय सबद उचारे ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर शरण आया कूं तारे ॥

जागो म्हांरा जगपतिरायक हंस बोलो क्यूं नहीं॥
हरि छो जी हिरदा माहिं पट खोलो क्यूं नहीं॥
तन मन सुरति संजोइ सीस चरणां धरूं।
जहां जहां देखूं म्हारो राम तहां सेवा करूं॥
सदकै करूं जी सरीर जुगै जुग वारणैं।
छोड़ी छोड़ी लिखूं सिलाम बहोत करि जानज्यौ।
बंदी हूं खानाजाद महरि करि मानज्यौ॥
हां हो म्हारा नाथ सुनाथ बिलम नहिं कीजिये।
मीरा चरणां की दासि दरस फिर दीजिये॥

जोगी मेरो सांवळा कांहीं गवोरी॥ध्रु०॥
न जानु हार गवो न जानु पार गवो। न जानुं जमुनामें डुब गवोरी॥१॥
ईत गोकुल उत मथुरानगरी। बीच जमुनामो बही गवोरी॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। चरनकमल चित्त हार गवोरी॥३॥ 

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