खबर मोरी लेजारे बंदा मीरा बाई पदावली

खबर मोरी लेजारे बंदा मीरा बाई पदावली

खबर मोरी लेजारे बंदा
खबर मोरी लेजारे बंदा जावत हो तुम उनदेस॥
हो नंदके नंदजीसु यूं जाई कहीयो। एकबार दरसन दे जारे॥१॥
आप बिहारे दरसन तिहारे। कृपादृष्टि करी जारे॥२॥
नंदवन छांड सिंधु तब वसीयो। एक हाम पैन सहजीरे।
जो दिन ते सखी मधुबन छांडो। ले गयो काळ कलेजारे॥३॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सबही बोल सजारे॥४॥

भक्ति में जब प्रेम की गहराई बढ़ती है, तो आत्मा अपने प्रियतम के दर्शन के लिए अनवरत पुकार करने लगती है। श्रीकृष्ण के प्रति यह अनुराग केवल शब्दों में नहीं, बल्कि हृदय की गहन अनुभूति में व्यक्त होता है। जब यह पुकार उठती है, तो उसमें कोई औपचारिकता नहीं, कोई संशय नहीं—सिर्फ वह मधुर स्मरण, जो ईश्वर की कृपा को पाने के लिए आतुर रहता है।

नंदजी के नंदन श्रीकृष्ण केवल एक ईश्वरीय शक्ति नहीं, बल्कि भक्त के जीवन का आलंबन हैं। जब उनकी कृपा दृष्टि भक्त को स्पर्श करती है, तब वह मोक्ष के द्वार तक पहुँच जाता है। यह सिर्फ बाह्य दर्शन नहीं, बल्कि आत्मा का वह पूर्ण समर्पण है, जो भक्ति की सबसे ऊँची अवस्था तक साधक को ले जाता है।

मीराँ की भक्ति इसी अनुराग की पराकाष्ठा को प्रकट करती है। जब प्रेम संपूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब उसमें कोई संशय नहीं रहता—सिर्फ उस अटूट श्रद्धा और समर्पण की अखंड धारा, जो साधक को ईश्वर में पूर्णतः विलीन कर देती है। यही भक्ति का सर्वोच्च स्वरूप है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में पूर्ण रूप से समाहित हो जाते हैं।

अच्छे मीठे फल चाख चाख, बेर लाई भीलणी।
ऎसी कहा अचारवती, रूप नहीं एक रती।
नीचे कुल ओछी जात, अति ही कुचीलणी।
जूठे फल लीन्हे राम, प्रेम की प्रतीत त्राण।
उँच नीच जाने नहीं, रस की रसीलणी।
ऎसी कहा वेद पढी, छिन में विमाण चढी।
हरि जू सू बाँध्यो हेत, बैकुण्ठ में झूलणी।
दास मीरां तरै सोई, ऎसी प्रीति करै जोइ।
पतित पावन प्रभु, गोकुल अहीरणी।

अजब सलुनी प्यारी मृगया नैनों। तें मोहन वश कीधो रे॥ध्रु०॥
गोकुळ मां सौ बात करेरे बाला कां न कुबजे वश लीधो रे॥१॥
मनको सो करी ते लाल अंबाडी अंकुशे वश कीधो रे॥२॥
लवींग सोपारी ने पानना बीदला राधांसु रारुयो कीनो रे॥३॥
मीरां कहे प्रभु गिरिधर नागर चरणकमल चित्त दीनो रे॥४॥

अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥

अब तो निभायाँ सरेगी, बांह गहेकी लाज।
समरथ सरण तुम्हारी सइयां, सरब सुधारण काज॥
भवसागर संसार अपरबल, जामें तुम हो झयाज।
निरधारां आधार जगत गुरु तुम बिन होय अकाज॥
जुग जुग भीर हरी भगतन की, दीनी मोच्छ समाज।
मीरां सरण गही चरणन की, लाज रखो महाराज॥

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