गली तो चारों बंद हुई मैं हरिसे मिलूं

गली तो चारों बंद हुई मैं हरिसे मिलूं कैसे बाई पदावली

 

गली तो चारों बंद हुई, मैं हरिसे मिलूं कैसे जाय
गली तो चारों बंद हुई, मैं हरि से मिलूं कैसे जाय।
ऊंची नीची राह लपटीली, पांव नहीं ठहराय।
सोच सोच पग धरूं जतनसे, बार बार डिग जाय॥
ऊंचा नीचा महल पियाका म्हांसूं चढ़्‌यो न जाय।
पिया दूर पंथ म्हारो झीणो, सुरत झकोला खाय॥
कोस कोस पर पहरा बैठ्या, पैंड़ पैंड़ बटमार।
है बिधना, कैसी रच दीनी दूर बसायो म्हांरो गांव॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर सतगुरु दई बताय।
जुगन जुगन से बिछड़ी मीरा घर में लीनी लाय॥ 
 
मोरी लागी लटक गुरु चरणकी॥ध्रु०॥
चरन बिना मुज कछु नही भावे। झूंठ माया सब सपनकी॥१॥
भवसागर सब सुख गयी है। फिकीर नही मुज तरुणोनकी॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। उलट भयी मोरे नयननकी॥३॥

राणाजी, म्हे तो गोविन्द का गुण गास्यां।
चरणामृत को नेम हमारे, नित उठ दरसण जास्यां॥
हरि मंदर में निरत करास्यां, घूंघरियां धमकास्यां।
राम नाम का झाझ चलास्यां भवसागर तर जास्यां॥
यह संसार बाड़ का कांटा ज्या संगत नहीं जास्यां।
मीरा कहै प्रभु गिरधर नागर निरख परख गुण गास्यां॥

पायो जी म्हे तो राम रतन धन पायो।। टेक।।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो।।
जनम जनम की पूंजी पाई, जग में सभी खोवायो।।
खायो न खरच चोर न लेवे, दिन-दिन बढ़त सवायो।।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तर आयो।।
"मीरा" के प्रभु गिरधर नागर, हरस हरस जश गायो।।

नैना निपट बंकट छबि अटके।
देखत रूप मदनमोहन को, पियत पियूख न मटके।
बारिज भवाँ अलक टेढी मनौ, अति सुगंध रस अटके॥
टेढी कटि, टेढी कर मुरली, टेढी पाग लट लटके।
'मीरा प्रभु के रूप लुभानी, गिरिधर नागर नट के॥

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