गली तो चारों बंद हुई मैं हरिसे मिलूं

गली तो चारों बंद हुई मैं हरिसे मिलूं कैसे बाई पदावली

 

गली तो चारों बंद हुई, मैं हरिसे मिलूं कैसे जाय
गली तो चारों बंद हुई, मैं हरि से मिलूं कैसे जाय।
ऊंची नीची राह लपटीली, पांव नहीं ठहराय।
सोच सोच पग धरूं जतनसे, बार बार डिग जाय॥
ऊंचा नीचा महल पियाका म्हांसूं चढ़्‌यो न जाय।
पिया दूर पंथ म्हारो झीणो, सुरत झकोला खाय॥
कोस कोस पर पहरा बैठ्या, पैंड़ पैंड़ बटमार।
है बिधना, कैसी रच दीनी दूर बसायो म्हांरो गांव॥
मीरा के प्रभु गिरधर नागर सतगुरु दई बताय।
जुगन जुगन से बिछड़ी मीरा घर में लीनी लाय॥ 
 
भक्ति की यह गहन अनुभूति केवल बाहरी बाधाओं तक सीमित नहीं, बल्कि यह आत्मा की उस व्याकुलता को प्रकट करती है, जो अपने प्रियतम से मिलने के लिए अधीर है। जब चारों ओर की गलियाँ बंद प्रतीत होती हैं, जब मार्ग ऊँचा-नीचा और दुर्गम लगता है, तब साधक के लिए हर प्रयास सिर्फ एक परीक्षा बन जाता है—एक कठिन यात्रा, जिसे केवल श्रद्धा और समर्पण ही पार कर सकता है।

ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग सरल नहीं, यह सतत प्रयास, धैर्य और अटूट प्रेम की माँग करता है। जब हर कदम डगमगाने लगता है, जब मार्ग पर पहरे होते हैं, तब साधक की सच्ची भक्ति उसे फिर से आगे बढ़ने की शक्ति देती है। यह केवल एक बाहरी चुनौती नहीं, बल्कि भीतर की कसौटी भी है, जो भक्ति की सच्ची भावना को परखती है।

मीराँ की भक्ति इसी तीव्रता को व्यक्त करती है। जब यह प्रेम संपूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तब उसमें कोई संशय नहीं रहता—सिर्फ उस अटूट श्रद्धा और समर्पण की अखंड धारा, जो साधक को ईश्वर में पूर्णतः विलीन कर देती है। यही भक्ति की सर्वोच्च अवस्था है, जहाँ प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण एक-दूसरे में पूर्ण रूप से समाहित हो जाते हैं। जब आत्मा इस अनुभूति को पहचान लेती है, तब उसके लिए कोई अन्य सत्य नहीं रह जाता—सिर्फ प्रभु के चरणों की अनवरत स्मृति और उनकी कृपा का अहसास।
 
मोरी लागी लटक गुरु चरणकी॥ध्रु०॥
चरन बिना मुज कछु नही भावे। झूंठ माया सब सपनकी॥१॥
भवसागर सब सुख गयी है। फिकीर नही मुज तरुणोनकी॥२॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर। उलट भयी मोरे नयननकी॥३॥

राणाजी, म्हे तो गोविन्द का गुण गास्यां।
चरणामृत को नेम हमारे, नित उठ दरसण जास्यां॥
हरि मंदर में निरत करास्यां, घूंघरियां धमकास्यां।
राम नाम का झाझ चलास्यां भवसागर तर जास्यां॥
यह संसार बाड़ का कांटा ज्या संगत नहीं जास्यां।
मीरा कहै प्रभु गिरधर नागर निरख परख गुण गास्यां॥

पायो जी म्हे तो राम रतन धन पायो।। टेक।।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो।।
जनम जनम की पूंजी पाई, जग में सभी खोवायो।।
खायो न खरच चोर न लेवे, दिन-दिन बढ़त सवायो।।
सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तर आयो।।
"मीरा" के प्रभु गिरधर नागर, हरस हरस जश गायो।।

नैना निपट बंकट छबि अटके।
देखत रूप मदनमोहन को, पियत पियूख न मटके।
बारिज भवाँ अलक टेढी मनौ, अति सुगंध रस अटके॥
टेढी कटि, टेढी कर मुरली, टेढी पाग लट लटके।
'मीरा प्रभु के रूप लुभानी, गिरिधर नागर नट के॥

आपको ये पोस्ट पसंद आ सकती हैं
Next Post Previous Post