किण सँग खेलूँ होली मीरा बाई पदावली

किण सँग खेलूँ होली मीरा बाई पदावली

किण सँग खेलूँ होली
किण सँग खेलूँ होली, पिया तज गये हैं अकेली।।टेक।।
माणिक मोती सब हम छोड़े गल में पहनी सेली।
भोजन भवन भलो नहिं लागै, पिया कारण भई गेली।
मुझे दूरी क्यूं म्हेली।
अब तुम प्रीत अवरू सूं जोड़ी हमसे करी क्यूं पहेली।
बहु दिन बीते अजहु न आये, लग रही तालाबेली।
किण बिलमाये हेली।
स्याम बिना जियड़ो सुरझावे, जैसे जल बिना बेली।
मीराँ कूँ प्रभु दरसण दीज्यो, जनम जनम को चेली।
दरस बिन खड़ी दुहेली।।

(सेली=माला, गेली=पागल, म्हेली=डाल दिया है, पहेली=पहिली, तालाबेली=बेचैनी, बिलमाये=छोड़ना, त्यागना, बेली=बेल,लता, दुहेली=दुःखी,दुखिया)
 
प्रभु के बिना होली का रंग फीका है, जैसे मन अकेलेपन में डूबा हो। सारे सांसारिक सुख—माणिक, मोती, भोजन, भवन—बेमानी लगते हैं, जब पिया की याद में मन पागल-सा हो जाए। यह विरह की पीड़ा ऐसी है कि हर पल बेचैनी बढ़ती है, मानो कोई बेल बिना जल के सूख रही हो। प्रभु की दूरी और उनकी प्रीत का दूसरों से जुड़ना हृदय को पहेली-सा उलझा देता है।

कई दिन बीते, फिर भी उनके दर्शन न हुए, और मन तड़पता रहता है। मीरा की पुकार उनके दर्शन की है, जो जन्म-जन्म की चेरी बनकर उनके चरणों में खड़ी है। जैसे कोई दीया बिना तेल के कांपता हो, वैसे ही बिना दर्शन के यह जीवन दुखमय है। यह भक्ति का वह प्रेम है, जो विरह में भी प्रभु को ही खोजता है, और उनके मिलन की आशा में जीवित रहता है।
 
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