रसखान के दोहे हिंदी अर्थ सहित Raskhan Ke Dohe Hindi Arth Sahit

रसखान के दोहे हिंदी अर्थ सहित Raskhan Ke Dohe Hindi Arth Sahit

प्रेम-अयनि श्रीराधिका, प्रेम-बरन नँदनंद।
प्रेमवाटिका के दोऊ, माली मालिन द्वंद्व।।1।।
 
रसखान के दोहे हिंदी अर्थ सहित Raskhan Ke Dohe Hindi Arth Sahit

हिंदी अर्थ : रसखान कहते हैं कि राधिका प्रेम का खजाना, प्रेम स्वरुप हैं और श्रीकृष्‍ण प्रेम का रूप है, मूर्त रूप हैं। प्रेम रूपी बाग में दोनों माली-मालीन के जैसे हैं। एक बार श्रीकृष्‍ण का रूप देख लेने के बाद दूसरा रूप देखने का मन नहीं करता है। अतः रसखान ने श्री राधा और कृष्ण जी के दिव्य रूप का चित्रण किया है.

प्रेम-प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोय।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्‍यौं रोय।।2।।
 
हिंदी अर्थ : इस दोहे में रसखान ने प्रेम और परमात्मा के संबंध को व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि प्रेम ही परमात्मा का रूप है और परमात्मा स्वयं प्रेम का स्वरूप है। दोनों एक ही हैं, जैसे कि सूर्य और उसकी किरणें एक ही हैं। प्रेम ही परमात्मा का रूप है। प्रेम ही परमात्मा की शक्ति है, प्रेम ही परमात्मा की अभिव्यक्ति है। बिना प्रेम के परमात्मा की कल्पना ही नहीं की जा सकती। परमात्मा स्वयं प्रेम का स्वरूप है। परमात्मा प्रेममय है, प्रेम ही परमात्मा का वास्तविक स्वरूप है। रसखान उपमा का प्रयोग करते हुए कहते हैं कि प्रेम और परमात्मा का संबंध सूर्य और उसकी किरणों के समान है। सूर्य और उसकी किरणें एक ही हैं, दोनों में कोई अंतर नहीं है। उसी प्रकार प्रेम और परमात्मा भी एक ही हैं, दोनों में कोई अंतर नहीं है। रसखान एक प्रेमी भक्त कवि थे। वे प्रेम को परमात्मा का साक्षात रूप मानते थे। वे कहते थे कि प्रेम से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।

प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।
जो आवत एहि ढिग, बहुरि, जात नाहिं रसखान।।3।।

प्रेम-बारुनी छानिकै, बरुन भए जलधीस।
प्रेमहिं तें विष-पान करि, पूजे जात गिरीस।।4।।

प्रेम-रूप दर्पन अहो, रचै अजूबो खेल।
यामें अपनो रूप कछु लखि परिहै अनमेल।।5।।

कमलतंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।
अति सूधो टेढ़ो बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार।।6।।

लोक वेद मरजाद सब, लाज काज संदेह।
देत बहाए प्रेम करि, विधि निषेध को नेह।।7।।

कबहुँ न जा पथ भ्रम तिमिर, दहै सदा सुखचंद।
दिन दिन बाढ़त ही रहत, होत कबहुँ नहिं मंद।।8।।

भले वृथा करि पचि मरौ, ज्ञान गरूर बढ़ाय।
बिना प्रेम फीको सबै, कोटिन किए उपाय।।9।।

श्रुति पुरान आगम स्‍मृति, प्रेम सबहि को सार।
प्रेम बिना नहिं उपज हिय, प्रेम-बीज अँकुवार।।10।।

आनँद अनुभव होत नहिं, बिना प्रेम जग जान।
कै वह विषयानंद के, कै ब्रह्मानंद बखान।।11।।

ज्ञान करम रु उपासना, सब अहमिति को मूल।
दृढ़ निश्चय नहिं होत-बिन, किए प्रेम अनुकूल।।12।।

शास्‍त्रन पढ़ि पंडित भए, कै मौलवी कुरान।
जुए प्रेम जान्‍यों नहीं, कहा कियौ रसखान।।13।।

काम क्रोध मद मोह भय, लोभ द्रोह मात्‍सर्य।
इन सबही तें प्रेम है, परे कहत मुनिवर्य।।14।।

बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्‍वारथ हित जानि।
शुद्ध कामना तें रहित, प्रेम सकल रसखानि।।15।।

अति सूक्षम कोमल अतिहि, अति पतरो अति दूर।
प्रेम कठिन सबतें सदा, नित इकरस भरपूर।।16।।

जग मैं सब जायौ परै, अरु सब कहैं कहाय।
मैं जगदीसरु प्रेम यह, दोऊ अकथ लखाय।।17।।

जेहि बिनु जाने कछुहि नहिं, जात्‍यौ जात बिसेस।
सोइ प्रेम, जेहि जानिकै, रहि न जात कछु सेस।।18।।

दंपतिसुख अरु विषयरस, पूजा निष्‍ठा ध्‍यान।
इनतें परे बखानिए, शुद्ध प्रेम रसखान।।19।।

मित्र कलत्र सुबंधु सुत, इनमें सहज सनेह।
शुद्ध प्रेम इनमें नहीं, अकथ कथा सबिसेह।।20।।

इकअंगी बिनु कारनहिं, इक रस सदा समान।
गनै प्रियहि सर्वस्‍व जो, सोई प्रेम समान।।21।।

डरै सदा चाहै न कछु, सहै सबै हो होय।
रहै एक रस चाहकै, प्रेम बखानो सोय।।22।।

प्रेम प्रेम सब कोउ कहै, कठिन प्रेम की फाँस।
प्रान तरफि निकरै नहीं, केवल चलत उसाँस।।23।।

प्रेम हरी को रूप है, त्‍यौं हरि प्रेम स्‍वरूप।
एक होई द्वै यों लसैं, ज्‍यौं सूरज अरु धूप।।24।।

ज्ञान ध्‍यान विद्या मती, मत बिस्‍वास बिवेक।।
विना प्रेम सब धूर हैं, अग जग एक अनेक।।25।।

प्रेमफाँस मैं फँसि मरे, सोई जिए सदाहिं।
प्रेममरम जाने बिना, मरि कोई जीवत नाहिं।।26।।

जग मैं सबतें अधिक अति, ममता तनहिं लखाय।
पै या तरहूँ तें अधिक, प्‍यारी प्रेम कहाय।।27।।

जेहि पाए बैकुंठ अरु, हरिहूँ की नहिं चाहि।
सोइ अलौकिक शुद्ध सुभ, सरस सुप्रेम कहाहि।।28।।

कोउ याहि फाँसी कहत, कोउ कहत तरवार।
नेजा भाला तीर कोउ, कहत अनोखी ढार।।29।।

पै मिठास या मार के, रोम-रोम भरपूर।
मरत जियै झुकतौ थिरैं, बनै सु चकनाचूर।।30।।

पै एतो हूँ रम सुन्‍यौ, प्रेम अजूबो खेल।
जाँबाजी बाजी जहाँ, दिल का दिल से मेल।।31।।

सिर काटो छेदो हियो, टूक टूक हरि देहु।
पै याके बदले बिहँसि, वाह वाह ही लेहु।।32।।

अकथ कहानी प्रेम की, जानत लैली खूब।
दो तनहूँ जहँ एक ये, मन मिलाइ महबूब।।33।।

दो मन इक होते सुन्‍यौ, पै वह प्रेम न आहि।
हौइ जबै द्वै तनहुँ इक, सोई प्रेम कहाहि।।34।।

याही तें सब सुक्ति तें, लही बड़ाई प्रेम।
प्रेम भए नसि जाहिं सब, बँधें जगत के नेम।।35।।

हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम-आधीन।
याही तें हरि आपुहीं, याही बड़प्‍पन दीन।।36।।

वेद मूल सब धर्म यह, कहैं सबै श्रुतिसार।
परम धर्म है ताहु तें, प्रेम एक अनिवार।।37।।

जदपि जसोदानंद अरु, ग्‍वाल बाल सब धन्‍य।
पे या जग मैं प्रेम कौं, गोपी भईं अनन्‍य।।38।।

वा रस की कछु माधुरी, ऊधो लही सराहि।
पावै बहुरि मिठास अस, अब दूजो को आहि।।39।।

श्रवन कीरतन दरसनहिं जो उपजत सोई प्रेम।
शुद्धाशुद्ध विभेद ते, द्वैविध ताके नेम।।40।।

स्‍वारथमूल अशुद्ध त्‍यों, शुद्ध स्‍वभावनुकूल।
नारदादि प्रस्‍तार करि, कियौ जाहि को तूल।।41।।

रसमय स्‍वाभाविक बिना, स्‍वारथ अचल महान।
सदा एकरस शुद्ध सोइ, प्रेम अहै रसखान।।42।।

जातें उपजत प्रेम सोइ, बीज कहावत प्रेम।
जामें उपजत प्रेम सोइ, क्षेत्र कहावत प्रेम।।43।।

जातें पनपत बढ़त अरु, फूलत फलत महान।
सो सब प्रेमहिं प्रेम यह, कहत रसिक रसखान।।44।।

वही बीज अंकुर वही, सेक वही आधार।
डाल पात फल फूल सब, वही प्रेम सुखसार।।45।।

जो जातें जामैं बहुरि, जा हित कहियत बेस।
सो सब प्रेमहिं प्रेम है, जग रसखान असेस।।46।।

कारज कारन रूप यह, प्रेम अहै रसखान।
कर्ता कर्म क्रिया करन, आपहि प्रेम बखान।।47।।

देखि गदर हित-साहिबी, दिल्‍ली नगर मसान।
छिनहि बादसा-बंस की, ठसक छोरि रसखान।।48।।

प्रेम-निकेतन श्रीबनहि, आइ गोबर्धन धाम।
लह्यौ सरन चित चाहिकै, जुगल सरूप ललाम।।49।।

तोरि मानिनी तें हियो, फोरि मोहिनी-मान।
प्रेम देव की छविहि लखि, भए मियाँ रसखान।।50।।

बिधु सागर रस इंदु सुभ, बरस सरस रसखानि।
प्रेमबाटिका रचि रुचिर, चिर हिय हरख बखान।।51।।

अरपी श्री हरिचरन जुग पदुमपराग निहार।
बिचरहिं या मैं रसिकबर, मधुकर निकर अपार।।52।।

शेष पूरन राधामाधव सखिन संग बिहरत कुंज लुटीर।
रसिकराज रसखानि जहँ कूजत कोइल कीर।।53।।

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