श्री अभिनन्दन नाथ चालीसा Shri Abhinandan Nath Ji Chalisa

श्री अभिनन्दन नाथ चालीसा Shri Abhinandan Nath Ji Chalisa

 
Shri Abhinandan Nath Ji Chalisa

ऋषभ अजित  सम्भव अभिनन्दन, दया करे सब पर दुखभंजन
जनम मरन के टुटे बन्धन, मन मन्दिर तिष्ठें अभिनन्दन ।।
अयोध्या नगरी अती सुंदर, करते राज्य भूपति संवर ।।
सिद्धार्था उनकी महारानी, सूंदरता में थी लासानी ।।
रानी ने देखे शुभ सपने, बरसे रतन महल के अंगने ।।
मुख में देखा हस्ति समाता, कहलाई तीर्थंकर माता ।।
जननी उदर प्रभु अवतारे, स्वर्गो से आए सुर सारे ।।
मात पिता की पूजा करते, गर्भ कल्याणक उत्सव करते ।।
द्धादशी माघ शुक्ला की आई, जन्मे अभिनन्दन जिनराई ।।
देवो के भी आसन काँपे, शिशु को ले कर गए मेरू पे ।।
न्हवन किया शत – आठ कलश से, अभिनन्दन कहा प्रेम भाव से ।।
सूर्य समान प्रभु तेजस्वी, हुए जगत में महायशस्वी ।।
बोले हित – मित वचन सुबोध, वाणी में नही कही विरोध ।।
यौवन से जब हुए विभूषित, राज्यश्री को किया सुशोभित ।।
साढे तीन सौ धनुष प्रमान, उन्नत प्रभु – तन शोभावान ।।
परणाई कन्याएँ अनेक, लेकिन छोडा नही विवेक ।।
नित प्रती नूतन भोग भोगते, जल में भिन्न कमल सम रहते ।।
इक दिन देखे मेघ अम्बर में, मेघ महल बनते पल भर में ।।
हुए विलीन पवन चलने से, उदासीन हो गए जगत से ।।
राजपाट निज सुत को सौंपा, मन में समता – वृक्ष को रोपा ।।
गए उग्र नामक उध्य़ान, दीक्षीत हुए वहाँ गुणखान ।।
शुक्ला द्धादशी थी माघ मास, दो दिन का धारा उपवास ।।
तिसरे दिन फिर किया विहार, इन्द्रदत नृपने दिया आहार ।।
वर्ष अठारह किया घोर तप, सहे शीत – वर्षा और आतप ।।
एक दिन असन वृक्ष के निचे, ध्यान वृष्टि से आतम सींचे ।।
उदय हुआ केवल दिनकर का, लोका लोक ज्ञान में झसका ।।
हुई तब समोशरण की रचना, खिरी प्रभु की दिव्य देशना ।।
जीवाजीव और धर्माधर्म, आकाश – काल षटद्रव्य मर्म ।।
जीव द्रव्य ही सारभूत है, स्वयंसिद्ध ही परमपूत है ।।
रूप तीन लोक – समझाया, ऊध्र्व – मध्य – अधोलोक बताया ।।
नीचे नरक बताए सात, भुगते पापी अपने पाप ।।
ऊपर सओसह सवर्ग सुजान, चतुनिर्काय देव विमान ।।
मध्य लोक में द्धीप असँख्य, ढाई द्धीप में जायें भव्य ।।
भटको को सन्मार्ग दिखाया, भव्यो को भव – पार लगाया ।।
पहुँचे गढ़ सम्मेद अन्त में, प्रितमा योग धरा एकान्त में ।।
शुक्लध्यान में लीन हुए तब, कर्म प्रकृती क्षीण हुई सब ।।
वैसाख शुक्ला षष्ठी पुण्यवान, प्रातः प्रभु का हुआ निर्वाण ।।
मोक्ष कल्याणक करें सुर आकर, आनन्दकूट पूजें हर्षाकर ।।
चालीसा श्रीजिन अभिनन्दन, दूर करे सबके भवक्रन्दन ।।
स्वामी तुम हो पापनिकन्दन, हम सब करते शत-शत वन्दन ।। 
 

श्री अभिनन्दन नाथ जी जैन धर्म के चौथे तीर्थंकर थे। उनका जन्म इक्ष्वाकु वंश के राजा संवर और रानी सिद्धार्था के घर अयोध्या में हुआ था। उनका जन्म माघ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को हुआ था। अभिनन्दन नाथ जी एक बुद्धिमान और करुणामय राजा थे। उन्होंने अपने राज्य में न्याय और धर्म की स्थापना की। उन्होंने अपने जीवन में अनेक पुण्यकर्म किए। उन्होंने माघ शुक्ल पक्ष की द्वादशी को दीक्षा ली और 12 वर्षों की कठोर तपस्या के बाद पौष शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त किया।

अभिनन्दन नाथ जी को "अभिनन्दन" नाम इसलिए मिला क्योंकि उन्होंने हमेशा दूसरों के प्रति आनंद का भाव प्रकट किया। वे एक महान ज्ञानी और दार्शनिक थे। उन्होंने अपने उपदेशों में जीवों को अहिंसा, करुणा और सत्य का पालन करने का उपदेश दिया। अभिनन्दन नाथ जी को जैन धर्म में बहुत सम्मान दिया जाता है। उनके जन्मदिन को अभिनन्दन नाथ जयंती के रूप में मनाया जाता है। अभिनन्दन नाथ जी के जीवन से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें हमेशा दूसरों के प्रति दयालु और आनंदित होना चाहिए। हमें अपने जीवन में अहिंसा, करुणा और सत्य का पालन करना चाहिए।
 
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Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

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