श्रीमद भागवद गीता नित्य स्तुति अर्थ
श्रीमद भागवद गीता नित्य स्तुति श्लोक
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत I
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम II
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम I
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे II
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:I
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन II
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः:I
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: II
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम II
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम I
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे II
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:I
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन II
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः:I
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: II
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
हे भारत! जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
सज्जनों की रक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना के लिए मैं युगों-युगों में प्रकट होता हूँ।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥
मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। जो व्यक्ति इन्हें सत्यता से जानता है, वह शरीर छोड़ने के बाद पुनर्जन्म नहीं पाता और मेरे पास आता है।
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥
जो लोग राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर मेरी शरण में आते हैं, वे अनेक लोग ज्ञान और तप से शुद्ध होकर मेरी अवस्था को प्राप्त करते हैं।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वश:॥
हे पार्थ! जैसे लोग मेरी शरण में आते हैं, वैसे ही मैं उन्हें स्वीकार करता हूँ। सभी मनुष्य मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं।
काङ्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥
जो लोग कर्मों के फल की इच्छा रखते हुए देवताओं की पूजा करते हैं, वे जल्दी ही मनुष्यों के संसार में कर्मों के द्वारा सिद्धि प्राप्त करते हैं।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥
मैंने गुण और कर्म के आधार पर चार वर्णों की रचना की है। उनके कर्ता को भी मुझे अव्यय कर्ता के रूप में जानना चाहिए।
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥
मेरे कर्मों से मुझे कोई बंधन नहीं होता और न ही मुझे उनके फलों की इच्छा होती है। जो व्यक्ति मुझे इस प्रकार जानता है, वह कर्मों से बंधित नहीं होता।
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि:।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम्॥
इस प्रकार, पूर्वजों द्वारा किए गए कर्मों को जानकर, तुम भी उन्हीं कर्मों को करो, जो वे पहले करते आए हैं।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
हे भारत! जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
सज्जनों की रक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना के लिए मैं युगों-युगों में प्रकट होता हूँ।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥
मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। जो व्यक्ति इन्हें सत्यता से जानता है, वह शरीर छोड़ने के बाद पुनर्जन्म नहीं पाता और मेरे पास आता है।
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥
जो लोग राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर मेरी शरण में आते हैं, वे अनेक लोग ज्ञान और तप से शुद्ध होकर मेरी अवस्था को प्राप्त करते हैं।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वश:॥
हे पार्थ! जैसे लोग मेरी शरण में आते हैं, वैसे ही मैं उन्हें स्वीकार करता हूँ। सभी मनुष्य मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं।
काङ्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥
जो लोग कर्मों के फल की इच्छा रखते हुए देवताओं की पूजा करते हैं, वे जल्दी ही मनुष्यों के संसार में कर्मों के द्वारा सिद्धि प्राप्त करते हैं।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥
मैंने गुण और कर्म के आधार पर चार वर्णों की रचना की है। उनके कर्ता को भी मुझे अव्यय कर्ता के रूप में जानना चाहिए।
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥
मेरे कर्मों से मुझे कोई बंधन नहीं होता और न ही मुझे उनके फलों की इच्छा होती है। जो व्यक्ति मुझे इस प्रकार जानता है, वह कर्मों से बंधित नहीं होता।
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि:।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम्॥
इस प्रकार, पूर्वजों द्वारा किए गए कर्मों को जानकर, तुम भी उन्हीं कर्मों को करो, जो वे पहले करते आए हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता के नित्य स्तुति श्लोकों में जीवन के गूढ़ तत्त्वों का सार निहित है, जो आध्यात्मिक उन्नति और मोक्ष की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं। "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत" से यह स्पष्ट होता है कि जब भी संसार में अधर्म और अराजकता बढ़ती है, तब परमात्मा स्वयं अवतार लेकर धर्म की पुनः स्थापना करते हैं। यह शाश्वत सत्य है कि ईश्वर समय-समय पर अपने भक्तों की रक्षा के लिए प्रकट होते हैं।
"जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः" यह ज्ञान देता है कि जो व्यक्ति जन्म और कर्म के रहस्य को समझता है, वह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होकर परमात्मा की प्राप्ति करता है। मनुष्य का लक्ष्य केवल कर्म करना नहीं, बल्कि कर्मों के पीछे के तत्त्व को समझना और आत्मा की शुद्धि करना है।
"वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः" यह बताता है कि जो मनुष्य मोह, भय और क्रोध से मुक्त होकर पूर्ण समर्पण के साथ परमात्मा की शरण में आता है, वह सच्चा भक्त कहलाता है। ऐसे भक्त ज्ञान और तपस्या से निर्मल होकर भगवान के प्रति पूर्ण भक्ति में लीन हो जाते हैं।
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्" से यह संदेश मिलता है कि भगवान अपने भक्तों की श्रद्धा और भक्ति के अनुसार उनकी सहायता करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की भक्ति के स्वरूप के अनुसार ही उसे ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है।
"काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः" यह समझाता है कि संसार में देवता भी कर्म सिद्धि की कामना करते हैं, क्योंकि कर्म से ही सफलता मिलती है। कर्म करना आवश्यक है, परन्तु फल की इच्छा त्यागनी चाहिए।
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः" यह श्लोक समाज में कर्म और गुण के आधार पर विभाजन की व्याख्या करता है, परन्तु यह भी स्पष्ट करता है कि परमात्मा ही सभी कर्मों के कर्ता हैं और सभी का पालनहार हैं।
"न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा" यह गूढ़ सत्य उद्घाटित करता है कि जो व्यक्ति जानता है कि कर्मों का प्रभाव परमात्मा पर नहीं पड़ता और वह कर्मों के फलों की इच्छा नहीं रखता, वह बंधन से मुक्त होता है।
"एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः" यह प्रेरणा देता है कि ज्ञानी और मुमुक्षु को पूर्वजों के कर्मों को जानकर भी अपने कर्मों को करना चाहिए, क्योंकि कर्म त्यागना नहीं, बल्कि निष्काम भाव से कर्म करना ही मोक्ष की कुंजी है।
"जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः" यह ज्ञान देता है कि जो व्यक्ति जन्म और कर्म के रहस्य को समझता है, वह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त होकर परमात्मा की प्राप्ति करता है। मनुष्य का लक्ष्य केवल कर्म करना नहीं, बल्कि कर्मों के पीछे के तत्त्व को समझना और आत्मा की शुद्धि करना है।
"वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः" यह बताता है कि जो मनुष्य मोह, भय और क्रोध से मुक्त होकर पूर्ण समर्पण के साथ परमात्मा की शरण में आता है, वह सच्चा भक्त कहलाता है। ऐसे भक्त ज्ञान और तपस्या से निर्मल होकर भगवान के प्रति पूर्ण भक्ति में लीन हो जाते हैं।
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्" से यह संदेश मिलता है कि भगवान अपने भक्तों की श्रद्धा और भक्ति के अनुसार उनकी सहायता करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की भक्ति के स्वरूप के अनुसार ही उसे ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है।
"काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः" यह समझाता है कि संसार में देवता भी कर्म सिद्धि की कामना करते हैं, क्योंकि कर्म से ही सफलता मिलती है। कर्म करना आवश्यक है, परन्तु फल की इच्छा त्यागनी चाहिए।
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः" यह श्लोक समाज में कर्म और गुण के आधार पर विभाजन की व्याख्या करता है, परन्तु यह भी स्पष्ट करता है कि परमात्मा ही सभी कर्मों के कर्ता हैं और सभी का पालनहार हैं।
"न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा" यह गूढ़ सत्य उद्घाटित करता है कि जो व्यक्ति जानता है कि कर्मों का प्रभाव परमात्मा पर नहीं पड़ता और वह कर्मों के फलों की इच्छा नहीं रखता, वह बंधन से मुक्त होता है।
"एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः" यह प्रेरणा देता है कि ज्ञानी और मुमुक्षु को पूर्वजों के कर्मों को जानकर भी अपने कर्मों को करना चाहिए, क्योंकि कर्म त्यागना नहीं, बल्कि निष्काम भाव से कर्म करना ही मोक्ष की कुंजी है।
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