वे श्यामा तेरे दरश दी मारी

वे श्यामा तेरे दरश दी मारी

वे श्यामा तेरे दरश दी मारी,
मैं जोगन हो गईया,
वे श्यामा छड के दुनिया सारी,
मैं तेरी हो गईया,

हाथ कड़ताला पैरी झन्जर,
मैं हो गयी फकरा दे वांगर,
वे श्यामा छड के चार दवारी,
मैं बाहर खलो गईया,
वे श्यामा.......


तेरे प्यार विच सुध बुध खोई,
शरमा वाली लाके लोई ,
वे श्यामा लगया रोग अवला,
मैं रोगन हो गईया,
वे श्यामा.......

तेरे दर ते अलख जगाई,
तू ना खैर दरश दी पाई,
वे श्यामा लोकी मैनू कहन्दे,
मैं पागल हो गईया,
वे श्यामा.......


सुंदर भजन में श्रीकृष्णजी के प्रेम की तीव्रता और भक्त के अनन्य समर्पण को प्रदर्शित किया गया है। जब आत्मा उनके दर्शन की चाह में व्याकुल हो जाती है, तब सांसारिक बंधन महत्वहीन प्रतीत होते हैं। यह अनुराग केवल बाहरी नहीं, बल्कि आत्मा की गहराइयों से उठने वाला है, जहाँ भक्त स्वयं को पूर्ण रूप से प्रभु के चरणों में अर्पित कर देता है।

भक्ति की यह अवस्था ऐसी है, जहाँ सांसारिक मोह, प्रतिष्ठा और सीमाएँ विलीन हो जाती हैं। जब श्रीकृष्णजी का प्रेम मन में उतरता है, तब भक्त अपने अस्तित्व को छोड़कर केवल उनके लिए जीता है। यह अनुराग उस निश्छलता को दर्शाता है, जहाँ प्रेम स्वयं को विसर्जित कर देता है और केवल आराध्य की भक्ति ही शेष रहती है।

श्रद्धा की पराकाष्ठा बताती है कि जब कोई ईश्वर की आराधना में पूर्ण रूप से समर्पित हो जाता है, तब उसका संसार से नाता केवल प्रतीकात्मक रह जाता है। उसके अस्तित्व का एकमात्र उद्देश्य श्रीकृष्णजी के प्रेम का अनुभव करना होता है, और यही भक्ति की परम अवस्था है।
 
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