मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोईजाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई
छाँड़ि दई कुल की कानि, कहा करि है कोई
संतन ढिग बैठि-बैठि, लोक लाज खोई
अँसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम-बेली बोई
अब तो बेल फैल गई, आनँद फल होई
दही की मथनिया, बड़े प्रेम से बिलोई
माखन सब काढ़ि लियो, छाछ पिये कोई
भगत देखि राजी भई, जगत देखि रोई
दासी ‘मीराँ’ लाल गिरिधर, तारो अब मोही
आपने मीराबाई के प्रसिद्ध भजन "मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई" के कुछ पद प्रस्तुत किए हैं। इस भजन में मीराबाई अपने आराध्य श्री कृष्ण के प्रति अपनी गहरी भक्ति और प्रेम को व्यक्त करती हैं। वह कहती हैं कि उनका पति श्री कृष्ण हैं, जिनके सिर पर मोर मुकुट है। उन्होंने कुल की मर्यादा को छोड़ दिया है और संतों के साथ बैठकर लोक-लाज की परवाह नहीं की। वह प्रेम की बेल को सींच रही हैं, जिससे आनंद का फल प्राप्त हो रहा है। दही की मथनिया बिलोकर माखन निकाल रही हैं और छाछ पी रही हैं। भगतों को देखकर वह प्रसन्न हैं, जबकि संसार उनके इस प्रेम को देखकर रो रहा है। अंत में, वह स्वयं को मीराबाई, श्री कृष्ण की दासी, मानते हुए कहती हैं कि अब वह श्री कृष्ण के प्रेम में रंगी हुई हैं।
मीराबाई का मन श्रीकृष्णजी के प्रेम में ऐसा रमा है कि उनके लिए कोई और नहीं, बस वही मोर मुकुटधारी गिरिधर गोपाल हैं। कुल की मर्यादा और लोक-लाज को ठुकराकर वह संतों के संग में डूबी हैं, जैसे कोई नदी अपनी धारा छोड़कर सागर की ओर बढ़े। प्रेम की बेल को उन्होंने आंसुओं से सींचा, और अब वह फैलकर आनंद के फल दे रही है, मानो हर पल श्रीकृष्णजी की कृपा बरस रही हो। दही को मथकर माखन निकालने में जो प्रेम है, वह सच्ची भक्ति का रस है, पर संसार छाछ में ही उलझा रहता है। भक्तों का संग उन्हें सुख देता है, लेकिन दुनिया उनके इस प्रेम को देखकर चकित है। मीराबाई की तरह यह दासत्व ही मन को आज़ाद करता है, और श्रीकृष्णजी के चरणों में लीन होने से ही सच्ची शांति मिलती है, जैसे कोई दीया तूफान में भी स्थिर जलता रहे।
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