संतो जागत नींद न कीजै कबीर पद हिंदी अर्थ सहित

संतो जागत नींद न कीजै Santo Jagat Nind Na Kije Lyrics

 
संतो जागत नींद न कीजै लिरिक्स Santo Jagat Nind Na Kije Lyrics

संतो जागत नींद न कीजै।।
काल न खाय कलप नहिं व्यापै। देह जुरा नहिं छीजै।।
उलटी गंग समुद्रहिं सोखै। ससि अउ सूरहिं ग्रासै।।
नव ग्रह मारि रोगिया बैठे। जल में बिंबु प्रगासै।।
बिनु चरनन को दहुँ दिसि धावै। बिनु लोचन जग सूझै ।।
ससा उलटि सिंह को ग्रासै। ई अचरज कोई बूझै ।।
अउंधे घडा नहीं जल बूड़े। सूधे सो जल भरिया।।
जेहि कारण नर भिन्न&भिन्न करै। सो गुरु परसावे तरिया।।
बैठि गुफा में सभजग देखै। बाहर किछउ न सूझै ।।
उलटा बान पारधिहीं लागै। सूरा होय सो बूझै ।।
गायन कहैं कबहुं नहिं गावै। अनबोला नित गावै।।
नटवट बाजा पेखनि पेखै। अनहद हेत बढ़ावै।।
कथनी बदनी निजुकै जीवै। ई सम अकथ कहानी।
धरती उलटि अकासहिं बघे। ई पुर्खन की बानी।।
बिना पिआला अमृत अंचवै।नदी नीर भरि राखै।
कहैं कबीर सो जुग जुग जीवै। जो राम सुधा रस चाखै।।
 
संतो जागत नींद न कीजै।
साधकों को हमेशा जागरूक रहना चाहिए और अज्ञान या मोह की नींद नहीं करनी चाहिए।

काल न खाय कलप नहिं व्यापै। देह जुरा नहिं छीजै।।
जो आत्मज्ञान को प्राप्त करता है, वह समय और चिंताओं से मुक्त हो जाता है। उसे काल रूपी कल्पनाएँ नष्ट नहीं कर सकती हैं। उसका शरीर और आत्मा स्थिर और अडिग रहती है।

उलटी गंग समुद्रहिं सोखै। ससि अउ सूरहिं ग्रासै।।
ध्यान में ऐसी शक्ति होती है कि उल्टी गंगा (सांसारिक प्रवाह) को रोक सकते हैं और चंद्र-सूर्य जैसे प्रतीकों को निगल सकते हैं। यह आत्मा की महान शक्ति को दर्शाता है।

नव ग्रह मारि रोगिया बैठे। जल में बिंबु प्रगासै।।
नौ ग्रह (सांसारिक बाधाएं) साधक को नहीं परेशान करतीं, और जैसे पानी में प्रतिबिंब चमकता है, वैसे ही साधक की आत्मा भी चमकती है।

बिनु चरनन को दहुँ दिसि धावै। बिनु लोचन जग सूझै।।
आत्मा बिना पैरों के हर जगह जा सकती है और बिना आँखों के भी पूरे संसार को देख सकती है। यह आत्मा की असीम क्षमताओं का वर्णन है।

ससा उलटि सिंह को ग्रासै। ई अचरज कोई बूझै।।
साधक उल्टी परिस्थितियों को साधता है। जैसे खरगोश शेर को खा जाए, यह रहस्य वही समझ सकता है जिसने आत्मज्ञान प्राप्त किया हो।

अउंधे घड़ा नहीं जल बूड़े। सूधे सो जल भरिया।।
अगर घड़ा उल्टा हो, तो वह पानी में डूबता नहीं है; लेकिन सीधा हो तो वह पानी से भरता है। यह साधना की स्थिति को दर्शाता है।

जेहि कारण नर भिन्न-भिन्न करै। सो गुरु परसावे तरिया।।
जिन बातों से मनुष्य भ्रमित होता है, उन्हें गुरु के स्पर्श से सही समझा जा सकता है और वह जीवन के सागर को पार कर सकता है।

बैठि गुफा में सभजग देखै। बाहर किछउ न सूझै।।
साधक अपनी अंतरात्मा (गुफा) में बैठकर पूरे संसार को देखता है, लेकिन बाहरी चीजें उसे भ्रमित नहीं करतीं।

उलटा बान पारधिहीं लागै। सूरा होय सो बूझै।।
उल्टा तीर भी लक्ष्य को भेद सकता है, इसे केवल बहादुर और ज्ञानी ही समझ सकते हैं।

गायन कहैं कबहुं नहिं गावै। अनबोला नित गावै।।
जो साधक आत्मज्ञान में स्थित है, वह कुछ कहे बिना भी सदा आनंद में रहता है।

नटवट बाजा पेखनि पेखै। अनहद हेत बढ़ावै।।
साधक भीतर की दिव्य ध्वनि (अनहद नाद) को सुनता है और इससे उसका प्रेम बढ़ता है।

कथनी बदनी निजुकै जीवै। ई सम अकथ कहानी।
आत्मज्ञान की बात केवल अनुभव से समझी जा सकती है, इसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है।

धरती उलटि अकासहिं बघे। ई पुर्खन की बानी।।
आत्मा की स्थिति में साधक पृथ्वी और आकाश को उलटकर देख सकता है। यह संतों के वचनों का गूढ़ अर्थ है।

बिना पिआला अमृत अंचवै। नदी नीर भरि राखै।।
साधक बिना किसी पात्र के भी अमृत (आनंद) का अनुभव करता है और अपने भीतर दिव्य रस को संचित रखता है।

कहैं कबीर सो जुग जुग जीवै। जो राम सुधा रस चाखै।।
कबीर कहते हैं, जो व्यक्ति राम (ईश्वर) के अमृत रस का अनुभव करता है, वह अमर हो जाता है।
 
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