भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते। संप्राप्ते सन्निहिते काले, न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥१॥
भज गोविन्दम हिंदी मीनिंग : हे मुर्ख मनुष्य, उस परम सत्ता को प्रणाम करो, उसकी स्तुति करो, उसमे अपना समय व्यतीत करो, क्योंकि इस जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु है जिसे व्याकरण के नियमो को याद करके टाला नहीं जा सकता है। श्री गोविन्द को भजो, श्री गोविन्द का नाम लो। महज, व्याकरण के नियमो से काम नहीं चलने वाला है।
मुर्ख व्यक्ति की तरहा धन का संग्रह करना और धन का लोभ करना छोड़ो और अपना मन परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उसी में प्रश्नं रहो। व्यर्थ की त्रश्नाओं को छोड़ दो। अपने चित्त को परिश्रम से प्राप्त धन से ही प्रशन्न करो।
नारी के देह से कैसा प्यार, कैसा मोह, ये तो महज मांस के तुकडे जैसा है, उसी से उसके अन्य अंग बने हैं। इसलिए बार बार अपने मन को प्रभु की भक्ति में लगाओं और नारी की चिंता को त्याग दो।
नलिनीदलगतजलमतितरलम्, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्। विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं, लोक शोकहतं च समस्तम्॥४॥
यह जीवन क्षणिक है जैसे की कमल के पत्ते पर बानी की बूँद, पूरा संसार ही त्रश्नाओ, लालसा और अहम् के कारन ही परेशान हैं।
यावद्वित्तोपार्जनसक्त:, तावन्निजपरिवारो रक्तः। पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे, वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे॥५॥
जब तक पुरुष शारीरक रूप से सक्षम होता है तो परिवार के सभी सदस्य उसका सम्मान करते हैं। जब उसका शरीर कमजोर हो जाता है, रोग ग्रस्त होने, बूढ़े होने पर कोई भी नजदीक आकर हाल चाल नहीं पूछता है। यावत्पवनो निवसति देहे, तावत् पृच्छति कुशलं गेहे। गतवति वायौ देहापाये, भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये॥६॥
जब तक जीवन है परिवार के सदस्य उसकी बात करते हैं, याद करते हैं लेकिन जब प्राण निकल जाते हैं तो उसकी पत्नी भी उसके शव को देखकर डर का अनुभव करती है।
बालस्तावत् क्रीडासक्तः, तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः। वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः, परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः॥७॥
भज गोविन्दम हिंदी मीनिंग : बचपन में हम खेलने के प्रति आकर्षित रहते हैं, जवानी में किसी औरत से प्रेम हो जाता है और बुढापे में हर बात की चिंता होती है। लेकिन कोई भी किसी भी चरण में इश्वर को याद करने की जहमत नहीं उठाता है। का ते कांता कस्ते पुत्रः, संसारोऽयमतीव विचित्रः। कस्य त्वं वा कुत अयातः, तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः॥८॥
तुम्हारी कौन पत्नी है, कौन पुत्र है यह बड़े ही आश्चर्य की बात है की तुम कौन हो और कहा से आये हो इस बारे में बार बार सोचो और इस पर विचार करो। तुम्हारा कोई नहीं है। सत्संगत्वे निस्संगत्वं, निस्संगत्वे निर्मोहत्वं। निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः॥९॥
जब कोई व्यक्ति सच्चे संत जन के संपर्क में आता है तो उसका सांसारिकता से मोह छूटने लगता है और वह ज्ञान की प्राप्ति की और अग्रसर होने लगता है। सच्चे ज्ञान की प्राप्ति तभी होती है जब कोई संत जन की शरण में जाए। जब संत जन की शरण मिलती है तो ज्ञान की प्राप्ति होती है जो की हमें यह अनुभव करवाता है की इश्वर ही परम सत्य है।
जवानी के बगैर कामना, झील बगैर पानी और रिश्तेदार बिना संपदा के कोई महत्त्व नहीं रखते हैं। इसी की समानता में इस संसार के सभी भौतिक सत्य परम सत्य के ज्ञान के अधूरे हैं, अर्थविहीन है। जब सत्य का उद्घाटन होता है तो सभी विषयों का ज्ञान होने लग जाता है। मा कुरु धनजनयौवनगर्वं, हरति निमेषात्कालः सर्वं। मायामयमिदमखिलम् हित्वा, ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा॥११॥
धन संपदा के पीछे अंधे होकर मत भागो, धन और शक्ति और जवानी, ये समय के एक झोंके के साथ बहा लिए जायेंगे। यह संसार सब माया की परछाई है इसलिए परम सत्य को पहचानो। दिनयामिन्यौ सायं प्रातः, शिशिरवसन्तौ पुनरायातः। कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुन्च्त्याशावायुः॥१२॥
भज गोविन्दम हिंदी मीनिंग : जैसे रात और दिन, धुप और छांया, सर्दी और वसंत, आते जाते रहते हैं, परिवर्तनशील हैं, इसी प्रकार से एक रोज यह जीवन भी समाप्त हो जायेगा लेकिन तृष्णा और लालसाओं का कोई अंत नहीं होता है, वे फिर से किसी को अपने वश में कर लेंगी।
धन और पत्नी की चिंता में दुबे व्यक्ति को सन्देश है की उसके धन और पत्नी को सँभालने वालो की कोई कमी नहीं है, उनकी चिंता क्यों कर रहे हो। केवल संत जन की शरण और संगत ही हमें तीन लोकों से पार कर सकती है।
जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः, काषायाम्बरबहुकृतवेषः। पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः, उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः॥१४॥ अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं, दशनविहीनं जतं तुण्डम्। वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं, तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्॥१५॥ अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः, रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः। करतलभिक्षस्तरुतलवासः, तदपि न मुञ्चत्याशापाशः॥१६॥ कुरुते गङ्गासागरगमनं, व्रतपरिपालनमथवा दानम्। ज्ञानविहिनः सर्वमतेन, मुक्तिं न भजति जन्मशतेन॥१७॥ सुर मंदिर तरु मूल निवासः, शय्या भूतल मजिनं वासः। सर्व परिग्रह भोग त्यागः, कस्य सुखं न करोति विरागः॥१८॥ योगरतो वाभोगरतोवा, सङ्गरतो वा सङ्गवीहिनः। यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं, नन्दति नन्दति नन्दत्येव॥१९॥
जिन्होंने गीता को पढ़ा हो और श्री कृष्णा जी की स्तुति की हो, गंगा जल की एक बूंद को पिया हो उस पर मृत्यु का भी कोई असर नहीं होता है।
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाऽपारे पाहि मुरारे॥२१॥
बार बार पैदा होने के इस चक्कर से हे मुरारी मुझे मुक्त करो। रथ्या चर्पट विरचित कन्थः, पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थः। योगी योगनियोजित चित्तो, रमते बालोन्मत्तवदेव॥२२॥
जो परम सत्ता को याद रखता है वह निर्भीक होकर किसी ना थकने वाले बच्चे की तरहा आनंद में रहता है।
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः, का मे जननी को मे तातः। इति परिभावय सर्वमसारम्, विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम्॥२३॥
तुम कौन हो और मैं कौन हूँ ? मैं कहा से आया हूँ ? मेरी माता कौन है , मेरा पिता कौन है ? इन सभी विषयों पर गंभीरता से विचार करने के बाद यह संसार अर्थ विहीन लगने लगेगा।
श्री विष्णु सभी में निवास करते हैं इसलिए तुम्हारा गुस्सा अर्थ्विहीं हैं। यदि तुम भगवान् श्री विष्णु जी को समझना चाहते हो तो सदैव एक जैसे चित में रहने का प्रयत्न करो। शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ। सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं, सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम्॥२५॥
अपने चहेतों का प्यार प्राप्त करने की कोशिश मत करो, ना ही दोस्तों, भाइयों और रिश्तेदारों और अपने पुत्र की ही, और ना ही अपने शत्रुओं से लड़ो। अपने आप को सभी में देखो और संघर्ष को समाप्त कर दो।
तृष्णा और लालसाओं को त्याग दो और अपने अस्तित्व को पहचानो। जो इस संसार में रहकर बस तृष्णा के शिकार हैं वो नरक के ही भागी हैं।
गेयं गीता नाम सहस्रं, ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्। नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं, देयं दीनजनाय च वित्तम्॥२७॥
अपने मन में परम पिता और शक्ति श्री विष्णु जी को याद रखो और संज जन की संगत में रहो जिससे तुम गरीब और निर्धन जन की मदद कर पाओगे। सुखतः क्रियते रामाभोगः, पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः। यद्यपि लोके मरणं शरणं, तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्॥२८॥
हम हमारे शरीर को सांसारिक सुखो को भोगने का एक जरिया मात्र समझते है जो की उचित नहीं है और इसका अंतिम सत्य मृत्यु है। व्यक्ति इस प्रकार के पाप पूर्ण कृत्यों को म्रत्यु प्रांत नहीं छोड़ता है। अर्थंमनर्थम् भावय नित्यं, नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्। पुत्रादपि धनभजाम् भीतिः, सर्वत्रैषा विहिता रीतिः॥२९॥
धन से किसी प्रकार की ख़ुशी नहीं आ सकती है। वह तो एक बूँद ख़ुशी भी नहीं दे सकती है, इसे अपने मस्तिस्क में बैठा लो, याद कर लो। एक अमीर व्यक्ति अपने पुत्र से ही डरा रहता है, धन के कारण। यही नियम धन का चारो तरफ है।
जब गुरु के कमल रूपी चरणों में ध्यान लगाओगे तो तुम्हे परम सत्ता के होने का आभास होने लगेगा। मूढः कश्चन वैयाकरणो, डुकृञ्करणाध्ययन धुरिणः। श्रीमच्छम्कर भगवच्छिष्यै, बोधित आसिच्छोधितकरणः॥३२॥
इस प्रकार से जो व्याकरण के नियम याद करने वाले जब श्री शंकराचार्य से मिलने के उपरान्त सब भूल कर परम सत्ता के प्रति रुख करते है।
भगवान् श्री कृष्ण की स्तुति में यह स्त्रोत है जिसका मुख्य भाव है की श्रष्टि के रचियता, धर्म के संस्थापक का अभिवादन। यह स्तुति आदि शंकराचार्य के द्वारा रचित है। यह १६ मात्राओं में रचित है। इसका भाव है की सभी शोहरत, दौलत साधन होने के बावजूद मेरे यहाँ होने का ओचित्य क्या है। मेरे पास सब कुछ है लेकिन शांति नहीं हैं। इसके पीछे का वाकया कुछ यु हैं की जब आदि शंकराचार्य जी काशी में आये तो एक बार उन्होंने देखा की एक बुढा व्यक्ति संस्कृत के नियम पाणिनि से सीख रहा था। वह बुढा व्यक्ति अपना सारा वक़्त संस्कृत के नियम सीखने में लगा रहा था जबकि वह अपने समय को इश्वर की स्तुति और अपने मस्तिस्क को नियंत्रित करने में लगा सकता था। ज्यादातर लोग बस बोद्धिक ज्ञान के पीछे ही हाथ धो कर पड़े थे जिसका वास्तविक ज्ञान से कोई लेना देना नहीं था। इस वर्स में यही बताया गया है की ऐसे व्यक्ति मुर्ख हैं।
भावार्थ : भज गोविन्दं भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढ़मते संप्राप्ते सन्निहिते काले, न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे
इश्वर को याद करो, स्तुति करो, अरे मुर्ख, संस्कृत के नियम तुम्हारी म्रत्यु / म्रत्यु के समय को नहीं टाल सकते हैं।
धन और संपत्ति के पीछे भागना बंद कर, अपने समय को सच्चे इश्वर की भक्ति में लगाओं,
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