सतगुर हम सूँ रीझि करि हिंदी मीनिंग Satguru Hum Su Rijhi Kari Hindi Meaning Kabir Ke Dohe HIndi Bhavarth, Hindi Arth Sahit.
सतगुर हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का भीजि गया सब अंग।
Satagur Ham Soon Reejhi Kari, Ek Kahya Prasang.
Barasya Baadal Prem Ka Bheeji Gaya Sab Ang.
कबीर दोहे के शब्दार्थ Kabir Doha (Copulet) Hindi Meaning.
सतगुर - गुरुदेव/गुरु।हम सूँ - मुझसे।
रीझि करि- प्रसन्न होकर/खुश होकर।
प्रसंग- ज्ञान की बात।
बरस्या - बरसने लगा (ज्ञान की बरसात )
बादल प्रेम का - ज्ञान रूपी बादल।
भीजि गया सब अंग-जीवात्मा ज्ञान से भीग गई है।
कबीर दोहा हिंदी मीनिंग Kabir Doha Hindi Meaning
सतगुरुदेव ने साधक (शिष्य) से प्रशन्न होकर उसे उपदेश रूपी ज्ञान की बात बताई। गुरु ने प्रेम (भक्ति) रूपी ऐसी बरसात की जिसमे साधक का अंग अंग सिक्त हो गया है।
माया के भ्रम में पड़ी हुई जीवात्मा जीवन के मूल उद्देश्य को विस्मृत कर देती है। जीवात्मा को इस दशा से बाहर निकालने का कार्य गुरु के माध्यम से ही पूर्ण हो सकता है। गुरु अपने ज्ञान के आधार पर साधक को प्रकाश की तरफ ले जाता है। कबीर साहेब ने जहाँ गुरु की महत्ता को स्थापित किया है वहीँ गुरु की पहचान पर अधिक जोर दिया है और स्पष्ट किया है की गुरु का ग्यानी होना अत्यंत आवश्यक है। उल्लेखनीय है की कबीर साहेब ने इस दोहे में रूपक अलंकार का सुन्दर व्यंजना की है।
माया की चमक-दमक में जीवात्मा अपने मूल उद्देश्य को भूल जाती है। वह धन, दौलत, सुख-सुविधाओं के पीछे भागने लगती है। इस दशा में वह अपने अस्तित्व का उद्देश्य भूल जाती है। जीवात्मा को इस दशा से बाहर निकालने का कार्य गुरु के माध्यम से ही पूर्ण हो सकता है। गुरु ही जीवात्मा को माया के भ्रम से बाहर निकाल सकता है। गुरु के ज्ञान के आधार पर साधक को प्रकाश की तरफ ले जाता है।
जो गुरु स्वयं ज्ञानी नहीं होगा, वह दूसरों को ज्ञान नहीं दे सकता। उल्लेखनीय है की कबीर साहेब ने इस दोहे में रूपक अलंकार का सुन्दर व्यंजना की है। कबीर साहेब ने इस दोहे में रूपक अलंकार का सुन्दर व्यंजना की है। उन्होंने प्रेम को बादल के रूप में प्रस्तुत किया है। जब गुरु के द्वारा बताई गई वार्ता से प्रेम का बादल बरस पड़ता है, तो साधक के सारे अंग उस प्रेम से भीग जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि गुरु के द्वारा बताई गई वार्ता से साधक के मन में प्रेम का संचार होता है और वह प्रेम के अमृत से तृप्त हो जाता है। गुरु के बिना जीवात्मा का उद्धार नहीं हो सकता। गुरु के द्वारा ही जीवात्मा को ज्ञान मिलता है और वह अपने जीवन के मूल उद्देश्य को प्राप्त कर पाती है।
जो गुरु स्वयं ज्ञानी नहीं होगा, वह दूसरों को ज्ञान नहीं दे सकता। उल्लेखनीय है की कबीर साहेब ने इस दोहे में रूपक अलंकार का सुन्दर व्यंजना की है। कबीर साहेब ने इस दोहे में रूपक अलंकार का सुन्दर व्यंजना की है। उन्होंने प्रेम को बादल के रूप में प्रस्तुत किया है। जब गुरु के द्वारा बताई गई वार्ता से प्रेम का बादल बरस पड़ता है, तो साधक के सारे अंग उस प्रेम से भीग जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि गुरु के द्वारा बताई गई वार्ता से साधक के मन में प्रेम का संचार होता है और वह प्रेम के अमृत से तृप्त हो जाता है। गुरु के बिना जीवात्मा का उद्धार नहीं हो सकता। गुरु के द्वारा ही जीवात्मा को ज्ञान मिलता है और वह अपने जीवन के मूल उद्देश्य को प्राप्त कर पाती है।
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