सोवत जागत रटूं निरन्तर राधा राधा गाऊँ
सोवत जागत रटूं निरन्तर राधा राधा गाऊँ भजन
जब लौं नाम साँस तब ही लौं, एक में एक हौं जाऊँ
जब लौं नाम साँस तब ही लौं, एक में एक हौं जाऊँ
सोवत जागत रटौं निरन्तर राधा-राधा गाऊँ
सोवत जागत रटौं निरन्तर राधा-राधा गाऊँ
मुझे कई बार आश्चर्य होता है
कि महाराज वेद के सूक्ष्मतम सिद्धान्त है।
जो वेदान्त का जो सूक्ष्मतम दर्शन है
वो यहाँ के रसिकों की वाणियों में सहज प्रस्फुटित हुआ है।
आपने एक बहुत सुन्दर वाक्य मुझे कभी कहा था।
मेरे सतत् स्मरण में रहता है, आप कहते थे कि
श्री ठाकुर जी के चरणार्विंद में जिसकी गति, मति, रति स्थिर हो जाती है
उसके हृदय में श्रुतियों का ज्ञान स्वतः प्रकट होता है
और ये कौतुक ये, ये आश्चर्य, ये प्रतिभा, ये आभा-प्रभा,
ये मैंने यहाँ के रसिकों की वाणियों का दर्शन किया है
कि वेदान्त का सूक्ष्मतम सिद्धान्त
वो एक रसिक की वाणी में सहज प्रकट हो गया है
कि जब लौं नाम सांस तबही लों एक मेक है जाऊँ
वेदान्त का जितना दर्शना है वो केवल इसीलिए तो कार्य करता है
कि मैं ना रहू, मेरा ना रहे
निर्विचार हो जाना ही निर्विकार होना है वेदान्त के दर्शन से।
वेदान्त की दृष्टि से आप देखेंगे तो निर्विचार होना ही निर्विकार होना है
और भोली सखी कहती है ;जब लौं नाम सांस तब ही लों
अर्थात् श्वांस और नाम का अंतर ना रहे।
कल मैंने कहा था ना।
दर्द दिलों के कम हो जाते मैं और तुम गर हम हो जाते।
एक बिन्दु है एक सिन्धु है।
न, न सिन्धु बिन्दु हो सकता है, न बिन्दु सिन्धु हो सकता है
फिर किया क्या जाए, कैसे वो भेद मिटे?
क्योंकि जब तक भेद रहे तब तक दुविधा है, तब तक भ्रम है
कैसे भेद मिटे?
एक ही तो युक्ति है
कि सिन्धु स्वीकार कर ले और बिन्दु विसर्जन कर दे
बिन्दु और सिन्धु एक हो जाएं और मैं और तुम हम हो जाएं।
भोली सखी ने सहज में कह दिया
जब लौं नाम साँस तब ही लौं, एक में एक हौं जाऊँ
जब लौं नाम साँस तब ही लौं, एक में एक हौं जाऊँ
सोवत जागत रटौं निरन्तर राधा-राधा गाऊँ
सोवत जागत रटौं निरन्तर राधा-राधा गाऊँ
जब लौं नाम साँस तब ही लौं, एक में एक हौं जाऊँ
सोवत जागत रटौं निरन्तर राधा-राधा गाऊँ
सोवत जागत रटौं निरन्तर राधा-राधा गाऊँ
मुझे कई बार आश्चर्य होता है
कि महाराज वेद के सूक्ष्मतम सिद्धान्त है।
जो वेदान्त का जो सूक्ष्मतम दर्शन है
वो यहाँ के रसिकों की वाणियों में सहज प्रस्फुटित हुआ है।
आपने एक बहुत सुन्दर वाक्य मुझे कभी कहा था।
मेरे सतत् स्मरण में रहता है, आप कहते थे कि
श्री ठाकुर जी के चरणार्विंद में जिसकी गति, मति, रति स्थिर हो जाती है
उसके हृदय में श्रुतियों का ज्ञान स्वतः प्रकट होता है
और ये कौतुक ये, ये आश्चर्य, ये प्रतिभा, ये आभा-प्रभा,
ये मैंने यहाँ के रसिकों की वाणियों का दर्शन किया है
कि वेदान्त का सूक्ष्मतम सिद्धान्त
वो एक रसिक की वाणी में सहज प्रकट हो गया है
कि जब लौं नाम सांस तबही लों एक मेक है जाऊँ
वेदान्त का जितना दर्शना है वो केवल इसीलिए तो कार्य करता है
कि मैं ना रहू, मेरा ना रहे
निर्विचार हो जाना ही निर्विकार होना है वेदान्त के दर्शन से।
वेदान्त की दृष्टि से आप देखेंगे तो निर्विचार होना ही निर्विकार होना है
और भोली सखी कहती है ;जब लौं नाम सांस तब ही लों
अर्थात् श्वांस और नाम का अंतर ना रहे।
कल मैंने कहा था ना।
दर्द दिलों के कम हो जाते मैं और तुम गर हम हो जाते।
एक बिन्दु है एक सिन्धु है।
न, न सिन्धु बिन्दु हो सकता है, न बिन्दु सिन्धु हो सकता है
फिर किया क्या जाए, कैसे वो भेद मिटे?
क्योंकि जब तक भेद रहे तब तक दुविधा है, तब तक भ्रम है
कैसे भेद मिटे?
एक ही तो युक्ति है
कि सिन्धु स्वीकार कर ले और बिन्दु विसर्जन कर दे
बिन्दु और सिन्धु एक हो जाएं और मैं और तुम हम हो जाएं।
भोली सखी ने सहज में कह दिया
जब लौं नाम साँस तब ही लौं, एक में एक हौं जाऊँ
जब लौं नाम साँस तब ही लौं, एक में एक हौं जाऊँ
सोवत जागत रटौं निरन्तर राधा-राधा गाऊँ
सोवत जागत रटौं निरन्तर राधा-राधा गाऊँ
भोरी सखी पद | सोवत जागत रटूं निरन्तर राधा राधा गाऊँ | भाव - श्रीहित अम्बरीष जी
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Author - Saroj Jangir
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