काया मंजन क्या करै कपड़ धोइम मीनिंग
काया मंजन क्या करै कपड़ धोइम धोइ मीनिंग
काया मंजन क्या करै, कपड़ धोइम धोइ।उजल हूवा न छूटिए, सुख नींदड़ी न सोह॥
Kaaya Manjan Kya Kare, Kapad Dhoim Dhoi,
Ujal Hua Na Chhutiye, Sukh Nindadi Na Soh.
Kaaya Manjan Kya Kare, Kapad Dhoim Dhoi,
Ujal Hua Na Chhutiye, Sukh Nindadi Na Soh.
काया मंजन : इस मानव तन को क्यों धो रहा है, क्यों इसे माँज रहा है.
क्या करै : क्यों कर रहे हो.
कपड़ : कपड़ा/कपडे.
धोइम धोइ : कपडे धोने से.
उजल हूवा : मैल दूर हो जाना.
न छूटिए : छूटता नहीं है.
सुख : सुख.
नींदड़ी न : नींद नहीं आती है (सुख की नींद नहीं आती है)
सोह : सोता नहीं है, चैन की नींद नहीं आती है.
क्या करै : क्यों कर रहे हो.
कपड़ : कपड़ा/कपडे.
धोइम धोइ : कपडे धोने से.
उजल हूवा : मैल दूर हो जाना.
न छूटिए : छूटता नहीं है.
सुख : सुख.
नींदड़ी न : नींद नहीं आती है (सुख की नींद नहीं आती है)
सोह : सोता नहीं है, चैन की नींद नहीं आती है.
कबीर साहेब की वाणी है की तुम व्यर्थ में अपने तन को माँज रहे हो, इस तन को मांजने से कोई लाभ नहीं होने वाला है. यह तन तो एक कपडे के समान है, इसे मांजने से कोई लाभ नहीं होगा, इसे साफ़ करने से कोई लाभ नहीं होगा. यदि मैल दूर करना है तो अपनी आत्मा के मैल को दूर करो ताकि व्यक्ति इश्वर के कुछ नजदीक पंहुच सके. यदि व्यक्ति आत्मिक रूप से उजला नहीं होता है तो अवश्य ही वह सुख की नींद/चैन की निंद्रा नहीं सो सकेगा. भाव है की हमें हमारे हृदय को शुद्ध करना है, शरीरी को नहीं. जब हृदय शुद्ध होगा तभी इश्वर की प्राप्ति संभव हो पायेगी. इस सन्दर्भ में कबीर साहेब का एक प्रशिद्ध भजन है -
क्या तन माँझता रे,
इक दिन माटी में मिल जाना,
पवन चले उड़ जाना रे पगले,
समय चूक पछताना,
क्या तन माँझता रे,
इक दिन माटी में मिल जाना,
चार जान मिल गढ़ी बनाई,
चढ़ा काठ की डोली,
चारों तरफ से आग लग दी
फूँक दिए जस होली
क्या तन माँझता रे,
इक दिन माटी में मिल जाना,
क्या तन माँझता रे,
इक दिन माटी में मिल जाना,
हाड जलें जस बन के लकड़ियाँ,
केस जले जस घाँसा,
कंचन जैसे काया जल गई,
कोइ न आवे पासा,
क्या तन माँझता रे,
इक दिन माटी में मिल जाना,
तीन दिनाँ तेरी तिरिया रोये,
तेरह दीना तेरा भाई
जनम जनम तेरी माता रोवे,
कोइ न आवे पासा,
क्या तन माँझता रे,
इक दिन माटी में मिल जाना,
इक दिन माटी में मिल जाना,
पवन चले उड़ जाना रे पगले,
समय चूक पछताना,
क्या तन माँझता रे,
इक दिन माटी में मिल जाना,
चार जान मिल गढ़ी बनाई,
चढ़ा काठ की डोली,
चारों तरफ से आग लग दी
फूँक दिए जस होली
क्या तन माँझता रे,
इक दिन माटी में मिल जाना,
क्या तन माँझता रे,
इक दिन माटी में मिल जाना,
हाड जलें जस बन के लकड़ियाँ,
केस जले जस घाँसा,
कंचन जैसे काया जल गई,
कोइ न आवे पासा,
क्या तन माँझता रे,
इक दिन माटी में मिल जाना,
तीन दिनाँ तेरी तिरिया रोये,
तेरह दीना तेरा भाई
जनम जनम तेरी माता रोवे,
कोइ न आवे पासा,
क्या तन माँझता रे,
इक दिन माटी में मिल जाना,
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Author - Saroj Jangir
दैनिक रोचक विषयों पर में 20 वर्षों के अनुभव के साथ, मैं कबीर के दोहों को अर्थ सहित, कबीर भजन, आदि को सांझा करती हूँ, मेरे इस ब्लॉग पर। मेरे लेखों का उद्देश्य सामान्य जानकारियों को पाठकों तक पहुंचाना है। मैंने अपने करियर में कई विषयों पर गहन शोध और लेखन किया है, जिनमें जीवन शैली और सकारात्मक सोच के साथ वास्तु भी शामिल है....अधिक पढ़ें। |