सांकल ही तैं सब लहे माया इहि संसार मीनिंग

सांकल ही तैं सब लहे माया इहि संसार मीनिंग

सांकल ही तैं सब लहे, माया इहि संसार
संकल (सांकल) ही तैं सब लहे, माया इहि संसार।
ते क्यूँ छूटे बापुड़े, बाँधे सिरजनहार॥
Sankal Hi Te Sab Lahe, Maya Ehi Sansaar,
Tu Kyu Chhute Bapude, Bandhe Sirjanhaar.

माया इहि संसार : इस संसार को.
ते क्यूँ छूटे बापुड़े :वे कैसे छूटेंगे बेचारे.
संकल (सांकल) : सांकल, जंजीर, चैन.
ही तैं : से, उसी से.
सब : सभी.
लहे : बंधे हुए हैं.
ते : वे.
क्यूँ : कैसे, किस विधि से.
छूटे : मुक्त होना, छुटना.
बापुड़े : बेचारे, असहाय.
बाँधे : बांध रखा है.
सिरजनहार : सृजनकर्ता, इश्वर.
बाँधे सिरजनहार : जिनको जगत नियामक शक्ति ने बाँध रखा है.
कबीर साहेब की वाणी है की माया तो एक तरह की सांकल है, बंधन है जिसने इस जगत को जकड रखा है. वे लोग कैसे इस माया की जंजीर से मुक्त हो सकते हैं जिनको स्वंय इश्वर ने बांध रखा है. भाव है की व्यक्ति इश्वर की कृपा से ही माया के प्रभाव से मुक्त हो सकता है. इस दोहा/साखी में व्यक्तिरेक अलंकार की व्यंजना
हुई है. 
व्यक्तिरेक अलंकर (Vyaktirek Alankar) : जहाँ पर उपमान की तुलना में उपमेय का उत्कर्ष हो, गुणों की अधिकता हो वहां पर व्यक्तिरेक अलंकार होता है.
खंजन मील सरोजनि की छबि गंजन नैन लला दिन होनो।
भौंह कमान सो जोहन को सर बेधन प्राननि नंद को छोनो।
अतः पद्य में, काव्य में जहाँ पर उपमेय को उपमान से श्रेष्ठ बताया जाता है, वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है।
"उपमानाद् यदन्यस्य व्यतिरेकः स एवं सः । अन्यस्योपमेयस्य | व्यतिरेकः आधिक्यम् ।"

स्वर्ग कि तुलना उचित ही है यहाँ,
किन्तु सुर सरिता कहाँ सरयू कहाँ।
वह मरों को पार उतारती,
यह यहीं से सबको ताँती।।
जन्म सिंधु पुनि बंधु विष,दीनन मलिन सकलंक|
सीय मुख समता पाव किमी चंद्र बापूरो रंक ||

का सरबरि तेहि देउँ मयंकू।
चाँद कलंकी वह निकलंकू।।

क्षीणः क्षीणोऽपि शशि भूयो भूयोऽभिवर्धते सत्यम् ।
विरम प्रसीद सुन्दरि! यौवनमनिवर्ति यातं तु ।

सम सुबरन सुखमाकर सुखद न थोर।
सीय अंग सखि कोमल कनक कठोर।।

जिनके यश प्रताप के आगे।
ससि मलीन रवि सीतल लागे।।

राधा मुख चन्द्र सा कहते हैं मतिरंक।
निष्कलंक है वह सदा, उसमें प्रकट कलंक।।

नयन नीरज में सखि, समता सब दरसात।
बंक विलोकन दृगन में, यह गुन अधिक दिखात।।

सिय मुख सरद कमल जिमि किमि कहि जाय।
निसि मलीन वह, निसि दिन यह विगसाय।।
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