कबीर संसा कोउ नहीं हरि सूं लगा हेत मीनिंग Kabir Sansa Kou Nahi Meaning

कबीर संसा कोउ नहीं हरि सूं लगा हेत मीनिंग Kabir Sansa Kou Nahi Meaning : Kabir Ke Dohe Hindi Arth/Bhavarth Sahit

कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लगा हेत।
काम क्रोध सूं झूझणा, चौड़ै मांड्या खेत॥
 
Kabir Sansa Kou Nahi, Hari Su Laga Het,
Kaam Krodh Su Jujhana Choude Mandya Khet.
 
कबीर संसा कोउ नहीं हरि सूं लगा हेत मीनिंग Kabir Sansa Kou Nahi Meaning : Kabir Ke Dohe Hindi Arth/Bhavarth Sahit
 

कबीर के दोहे का हिंदी मीनिंग (अर्थ/भावार्थ) Kabir Doha (Couplet) Meaning in Hindi

जब ईश्वर से हेत लग जाता है, भक्ति में मन लगने लगता है तब किसी प्रकार का संदेह शेष नहीं रहता है और काम क्रोध जैसे विकारों से व्यक्ति लोहा ले सकता है, विजय प्राप्त कर सकता है। कबीर साहेब के इस दोहे का भावार्थ है की साधक के मन में कोई भी शंका शेष नहीं है और उसका मन हरी से लग गया है। चौड़े में/ सभी के सामने साधक काम क्रोध से लड़ाई कर रहा है, संघर्षरत है।
 
The Meaning of Kabir Sahib's couplet is that the mind of a practitioner (sadhak) is free from any doubt, fully immersed in devotion to the Divine. However, outwardly, in front of everyone, the practitioner is engaged in a constant struggle against desires and anger, battling them.

खेत बुहार्‌या सूरिमै, मुझ मरणे का चाव ॥1॥
`कबीर' सोई सूरिमा, मन सूं मांडै झूझ ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज ॥2॥
`कबीर' संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत ।
काम क्रोध सूं झूझणा, चौड़ै मांड्या खेत ॥3॥
सूरा तबही परषिये, लड़ै धणी के हेत ।
पुरिजा-पुरिजा ह्वै पड़ै, तऊ न छांड़ै खेत ॥4॥
अब तौ झूझ्या हीं बणै, मुड़ि चाल्यां घर दूर ।
सिर साहिब कौं सौंपतां, सोच न कीजै सूर ॥5॥
जिस मरनैं थैं जग डरै, सो मेरे आनन्द ।
कब मरिहूं, कब देखिहूं पूरन परमानंद ॥6॥
कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर ।
काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर ॥7॥
`कबीर' यह घर पेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे हाथि धरि, सो पैसे घर माहिं ॥8॥
`कबीर' निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध ।
सीस उतारि पग तलि धरै, तब निकट प्रेम का स्वाद ॥9॥
प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाटि बिकाइ ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ ॥10॥
`कबीर' घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार ।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार ॥11॥
जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ ।
धड़ सूली सिर कंगुरैं, तऊ न बिसारौं तुझ ॥12॥
सिरसाटें हरि सेविये, छांड़ि जीव की बाणि ।
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि ॥13॥
`कबीर' हरि सबकूं भजै, हरि कूं भजै न कोइ ।
जबलग आस सरीर की, तबलग दास न होइ ॥14॥

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