तेरी काया नगर का कुण धणी
तेरी काया नगर का कुण धणी,
मारग में लूटे पांच जणी,
पांच जनी पच्चीस जनी,
मारग में लूटे पांच जणी।
आशा तृष्णा नदियां भारी,
बह गये संत बड़ा ब्रह्मचारी,
हरे हरे,
जो उबरया जो शरण तुम्हारी,
चमक रही है सेलाणी।
बन में लुट गये मुनीजन नंगा,
डस गयी ममता उल्टा टांगा,
हरे हरे,
जाके कान गुरु नहीं लागे,
श्रृंगी ऋषी पर आन पड़ी।
साधू संत मिल रोके घांटा,
साधु चढ़ ग्या उल्टी बाटा,
हरे हरे,
घेर लिया सब औघट घाटा,
पार उतारो आप धणी।
ईन्द्र बिगाड़ी गौतम नारी,
कुबजा भई गया कृष्ण मुरारी,
हरे हरे,
राधा रुखमा बिलकति हारी,
राम चन्द्र पर आन बणी।
शंकर लुट गये नेजाधारी,
रईयत उनकी कौन बिचारी,
हरे हरे,
भूल रही कर मन की मारी,
तीन युग झुक रही तीन जणी।
साहेब कबीर गुरु दीन्हा हेला,
धर्मदास सुनो निज चेला,
हरे हरे,
लंबा मारग पंथ दुहेला,
सिमरो सिरजन हार धनी।
तेरी काया नगर का कुण धणी,
मारग में लूटे पांच जणी,
पांच जनी पच्चीस जनी,
मारग में लूटे पांच जणी।
Teri Kaaya Nagar Ka Kaun Dhani?' asks Dharamdas (Kabir)
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Author - Saroj Jangir
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