माली आवत देखि के कलियां करे पुकार-हिंदी मीनिंग Mali Aavat Dekhi Ke Kaliya Kare Pukar Hindi Meaning
माली आवत देख के कलियन करे पुकारि।
फूले फूले चुनि लिये, कालि हमारी बारि
या
माली आवत देखि के, कलियां करे पुकार
फूली फूली चुन लई, काल हमारी बार
Maalee Aavat Dekh Ke Kaliyan Kare Pukaari.
Phoole Phoole Chuni Liye, Kaali Hamaaree Baari
Ya
Maalee Aavat Dekhi Ke, Kaliyaan Kare Pukaar
Phoolee Phoolee Chun Laee, Kaal Hamaaree Baar
इस दोहे का हिंदी मीनिंग: काल के विषय में वाणी है की जो कलियां खिल चुकी हैं /फूल बन चुकी हैं उन्हें तोड़ लिया गया है और जो खिलने वाली हैं उनकी बारी कल आने वाली है। काल सभी को अपना शिकार बनाता है। किसी का समय आज है तो किसी का कल, यही श्रष्टि का नियम है। भाव है की हमारा समय पूरा होने से पहले हमें ईश्वर की भक्ति में अपना समय लगाना है। यह मानव जीवन कोई इत्तेफाक नहीं है, बहुत ही जतन से प्राप्त हुआ है इसलिए इसका महत्त्व समझना बहुत ही आवश्यक होता है। काल के विषय में कबीर साहेब के कुछ अन्य विचार निम्न हैं :-
झूठे सुख को सुख कहैं, मानव हैं मन मोद।
खलक चबेना काल का कछु मुख में कछु गोद॥
मालिन आवत देखिकर कलियाँ करि पुकार।
फूले-फूले चुन लिये, कालि हमारी बार॥
पानी केरा बुदबुदा यही हमारी जान।
एक दिना छिप जायेंगे, तारे ज्यों परभात॥
कबीर यह जग कुछ नहीं, क्षण खाग क्षण मीठ।
कालि जु बैठी माडिया, आज मसाँणाँ दीठ॥
मरता-मरता जग मुआ, औसर मुआ न कोइ।
कबीर ऐसे मरि मुआ, जो बहुरि न मरना होइ॥
वैद मुआ, रोगी मुआ, मुआ संकल संसार।
एक कबीरा ना मुआ, जिनका राम आधार॥
हम घर जारा आपना, लिया मुराड़ा हाथ।
अब घर जारो तास का जो चले हमारे साथ॥
कालि करन्ता अबहि करि, अब करता सो हाल।
पाछे कछु न होइगो, जौ सिर आवे काल॥
कीचड़ भाटा गिर पस्या कछू न आयो हाथ।
पीसत-पीसत चाबिया सोई बिवह्या साथ॥
कबीर जन्त्र न बाजई, टूटी गये सब तार।
जन्त्र विचारा क्या करें, चले बजावन हार॥
यहु जीव आया दूर से, भजौं सी जासी दूर।
बीच मार्ग में रमि रहा, काक रहा सिर पूर॥
काची काया मन अथिर थिर थिर काम करंत।
क्यों क्यों नर निधड़क फिरै, त्यों त्यों काल हसंन॥
बेटा जाया तो का भया, कहा बजावै थाल।
आना-जाना है रहा, ज्यों कीड़ी का नाल॥
कौड़ी- कौड़ी जोरि कै जोरे लाख करोर।
चलती बार न कछु, मिल्यो लई लँगोटी तोर॥
परभात तारे खिसै, त्यों यह खिसै शरीर।
पैं दुइ अक्षर नहिं, खसहि सौ गति रह्यौ कबीर॥
हाड़ जलै ज्यों लाकड़ी, बाल जलैं ज्यो घास।
सब जग जलता देखके, भयो कबीर उदास॥
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