म्हारा गुरुदेव थाने बार बार वंदना
म्हारा गुरुदेव थाने बार बार वंदना
कोटी-कोटी प्रणाम,
प्रीत न जाने भृंग की,
गुरु कर ले आप समान।
यो तन विष की बेलड़ी,
गुरु अमृत की खान,
शीश दिया सतगुरु मिले,
तो भी सस्तो जान।
मैं जातो भव सिंध में,
मारा सतगुरु पकड़िया कैश,
डूबत भवजल तारियो,
माने दे सांचो उपदेश।।
बार-बार वंदना,
हजार बार वंदना,
मारा गुरुदेव थाने,
बार-बार वंदना।।
भगता रा आंगन दाता,
आप पधारो,
भगता रा अटक्या कारज,
आप सवारो,
ज्ञान रा आधार आप री,
बार-बार वंदना,
मारा गुरुदेव थारी,
बार-बार वंदना।।
निर्मल जल से,
पांव पखारूं,
मारा गुरुदेव थाने,
नैना सूं निहारूं,
भक्ति रा आधार आप री,
बार-बार वंदना,
मारा गुरुदेव थारी,
बार-बार वंदना।।
दास अशोक दाता,
थारो जस गावे,
चरणों री चाकरी में,
सब सुख पावे,
मुक्ति रा आधार आप री,
बार-बार वंदना,
मारा गुरुदेव थारी,
बार-बार वंदना।।
बार-बार वंदना,
हजार बार वंदना,
म्हारा गुरुदेव थाने,
बार-बार वंदना।।
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गुरुदेव के प्रति यह भजन सच्ची भक्ति और श्रद्धा का आलम बयां करता है, जो मन को उनके चरणों में लीन कर देता है। गुरु की बंदगी कोटि-कोटि प्रणाम से भी कम है, क्योंकि वो भृंग की प्रीत से भी ऊपर हैं। जैसे कोई मधुर रस फूल से ले, वैसे ही गुरु अमृत की खान हैं, जो इस विष भरे संसार में जीवन को पवित्र करते हैं। कबीरदासजी की उक्ति को दोहराते हुए भजन कहता है कि अगर शीश देकर भी सतगुरु मिले, तो ये सौदा सस्ता है। गुरु वो हैं, जो भवसागर में डूबते भक्त को पकड़कर सच्चे उपदेश से तार लेते हैं। जैसे कोई नाविक तूफान में नाव को किनारे ले आए, वैसे ही गुरु भक्त को मुक्ति का रास्ता दिखाते हैं।
भक्त बार-बार गुरुदेव को वंदन करता है, क्योंकि वो दाता हैं, जो भक्तों के आंगन में आकर उनके अटके काम संवारते हैं। उनकी कृपा से ज्ञान, भक्ति, और मुक्ति का आधार मिलता है। निर्मल जल से उनके चरण पखारने और नैनों से उन्हें निहारने की चाह भक्त के मन की पवित्रता को दर्शाती है, जैसे कोई फूल अपनी खुशबू से सारा बगीचा महकाए।
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Author - Saroj Jangir
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