(अंतरा 2) कुछ सखियाँ ने तेरी, कत कत ढेर लगाया, कत कत के सिमरन दे तंद नूं ध्यान दी वट्टी बनाया। सुत्ती दी तू सुत्ती रहियो, सुत्ती नूं दिन चढ़ आया। शावा! चरखा सिमरन दा।।
(अंतरा 3) हट्टी दिती सतगुरू ताहीं, नाम दा चीर बनाया। रह गई सुत्ती दी सुत्ती, नहीं ने खोह विच जग है पाया। की मुख ले के जावेंगी, जद लाड़ा मौत दा आया। चरखा सिमरन दा।।
(अंतरा 4) तड़के उठ तू कुड़िये, सिमरन दी माला बना ले। पूरे गुरु तों नाम तू ले के, मन दे तकले पा ले। अंत वेले एही कम है औंदा, बाकी सब लुट जांदा। चरखा सिमरन दा।।
(अंतरा 5) रूह पर सुनी जदों चरखे दी मस्ती तैनू आऊ। मस्ती मस्ती मस्ती दे विच्च सतगुरू नजर तैनू है आऊ। कुल मालिक दी बेटी है तू, एह तैनू समझावां। चरखा सिमरन दा।।
(अंतरा 6) गुरु कहे कत ले कुड़िये, कत कत ढेर लगा ले। बिना गुरु ते नाल ना जाई, जा के दर्शन पा ले। दुख सुख सारे खत्म हो जावण, जद सतगुरू गल लावे। चरखा सिमरन दा।।
सिमरन का चरखा वह पवित्र कर्म है, जो जीवन को हीरे-मोतियों से जड़ देता है। जैसे कारीगर सूत को कातकर सुंदर वस्त्र बनाता है, वैसे ही सिमरन मन को शुद्ध और सार्थक बनाता है। यह भाव है कि बड़े भाग्य से यह चरखा मिला है, जिसे प्रेम और श्रद्धा से चलाना जीवन का सबसे बड़ा धन है।
गफलत की नींद में खोया मन सिमरन के सूरज से जागता है। यह सीख है कि जवानी और समय का मूल्य समझकर सिमरन की माला फेरनी चाहिए, क्योंकि यही सच्चा साथी है। सहेलियों का ढेर लगाना, ध्यान की वट्टी जलाना, यह प्रतीक है कि सत्संग और साधना से ही मन की सुस्ती दूर होती है। जैसे सुबह की पहली किरण अंधेरे को चीरती है, वैसे ही सिमरन आत्मा को प्रकाश देता है।
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