दुख नगरी से प्रीत लगाई इसी से हरि सार
दुख नगरी से प्रीत लगाई इसी से हरि सार ना मिले
(मुखड़ा)
दुख नगरी से प्रीत लगाई,
इसी से हरि सार ना मिले।
सतसंगति को बिसराई,
इसी से हरि सार ना मिले।।
(अंतरा)
भेज दिए हरि करन भजनिया,
भा गई वासना की रागनिया।
तूने दुनिया में पाप कमाई,
इसी से हरि सार ना मिले।।
झूठे रिश्तों में मन लागा,
अब भी सोया, तू नहीं जागा।
तूने हरि को नर बिसराई,
इसी से हरि सार ना मिले।।
देह मनुज का पाकर बन्दे,
प्रभु बिसार किया पाप के धन्धे।
कांत जग से आसक्ति लगाई,
इसी से हरि सार ना मिले।।
(पुनरावृति)
इसी से हरि सार ना मिले।
इसी से हरि सार ना मिले।।
दुख नगरी से प्रीत लगाई,
इसी से हरि सार ना मिले।
सतसंगति को बिसराई,
इसी से हरि सार ना मिले।।
(अंतरा)
भेज दिए हरि करन भजनिया,
भा गई वासना की रागनिया।
तूने दुनिया में पाप कमाई,
इसी से हरि सार ना मिले।।
झूठे रिश्तों में मन लागा,
अब भी सोया, तू नहीं जागा।
तूने हरि को नर बिसराई,
इसी से हरि सार ना मिले।।
देह मनुज का पाकर बन्दे,
प्रभु बिसार किया पाप के धन्धे।
कांत जग से आसक्ति लगाई,
इसी से हरि सार ना मिले।।
(पुनरावृति)
इसी से हरि सार ना मिले।
इसी से हरि सार ना मिले।।
Dukh Nagari Se Preet Lagayi Bhajan-भजन : दुःख नगरी से प्रीत लगाई |दासानुदास श्रीकान्त दास जी महाराज | स्वर : शिवम जी
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जन : दुःख नगरी से प्रीत लगाई ।
भजन रचना : दासानुदास श्रीकान्त दास जी महाराज ।
स्वर : शिवम जी ।
भजन रचना : दासानुदास श्रीकान्त दास जी महाराज ।
स्वर : शिवम जी ।
मन जब सांसारिक सुखों और झूठे रिश्तों में उलझ जाता है, तो प्रभु का सच्चा सार उससे दूर हो जाता है। सत्संग की मधुर संगति को भूलकर, वासनाओं की रागिनी में खो जाना, जीवन को पाप और आसक्ति के बंधनों में जकड़ लेता है। जैसे कोई अनमोल रत्न को छोड़कर काँच को गले लगाए, वैसे ही देह पाकर भी प्रभु को भूलकर पाप के धंधों में लिप्त होना मनुष्य को भटकाता है। यह सत्य मन को जागृत करता है कि हरि का सार तभी मिलता है, जब मन माया की नगरी से प्रीत तोड़े और सच्चे भजन व सत्संग में रम जाए। प्रभु की याद ही वह दीप है, जो अंधेरे को चीरकर आत्मा को मुक्ति की राह दिखाता है।
जब तक इंसान दुःखरूपी संसार से प्रीत लगाए रखेगा और सत्संग को त्यागेगा, तब तक उसे हरि-सार यानी भगवान की सच्ची कृपा, भक्ति और आत्मिक शांति प्राप्त नहीं होगी। मनुष्य को ईश्वर ने यह जीवन साधना और भक्ति के लिए प्रदान किया है, लेकिन वासनाओं की रागनियों में बहकर वह पाप अर्जित करता है। झूठे रिश्तों और मोह-माया में उलझकर वह प्रभु को विस्मृत कर देता है। इस संसार की असली स्थिरता रिश्तों या भोग-वासनाओं में नहीं, बल्कि प्रभु-स्मरण और सत्संग में है। जब तक मनुष्य देह पाकर भी प्रभु को छोड़कर केवल वासनाओं और पाप के धंधों में लगा रहेगा, तब तक उसे परमसत्य की अनुभूति संभव नहीं। ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग त्याग और सत्संग से होकर जाता है, परंतु यदि मनुष्य मोह, पाप और वासनाओं में डूबा रहेगा तो लाख प्रयत्न करने पर भी हरि का सार — अर्थात् ईश्वर की निकटता और आत्मिक आनंद — नहीं मिल सकेगा।
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Author - Saroj Jangir
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