रघुबर कहेउ लखन भल घाटू अयोध्या काण्ड

रघुबर कहेउ लखन भल घाटू अयोध्या काण्ड

रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहुँ अब ठाहर ठाटू।।
लखन दीख पय उतर करारा। चहुँ दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा।।
नदी पनच सर सम दम दाना। सकल कलुष कलि साउज नाना।।
चित्रकूट जनु अचल अहेरी। चुकइ न घात मार मुठभेरी।।
अस कहि लखन ठाउँ देखरावा। थलु बिलोकि रघुबर सुखु पावा।।
रमेउ राम मनु देवन्ह जाना। चले सहित सुर थपति प्रधाना।।
कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए।।
बरनि न जाहि मंजु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला।।
दो0-लखन जानकी सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत।
सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत।।133।।
मासपारायण, सत्रहँवा विश्राम
 
राम का चित्रकूट में ठहरने का निर्णय, उनकी सादगी और प्रकृति के प्रति प्रेम को दर्शाता है। लक्ष्मण का उपयुक्त स्थान चुनना, जहाँ सरयू की शुद्ध धारा बहती है, वह उनकी भक्ति और प्रभु के प्रति सावधानी का प्रतीक है। यह नदी वह अमृत है, जो कलियुग के सारे कलुष को धो देती है। चित्रकूट का अचल स्वरूप, जैसे कोई अहेरी जो शत्रु को परास्त कर दे, वह पवित्रता का प्रतीक है।

राम का मन उस स्थान पर रम जाता है, और देवता भी उनके साथ हर्षित होते हैं। कोल और किरातों का तृण से सुंदर सदन रचाना, उनकी भक्ति और स्वागति भाव का चित्र है। दो सजे हुए शाल, एक लघु और एक विशाल, उस सौंदर्य को प्रकट करते हैं, जो सादगी में भी अपार है। यह शोभा वह फूल है, जो राम की उपस्थिति से खिल उठता है।

सिया और लक्ष्मण के साथ राम का उस निकेत में राजना, वह दृश्य है, जहाँ मुनि वेष में भी प्रभु और सिया, कामदेव और रति जैसे शोभित होते हैं। यह भक्ति वह रस है, जो हृदय को प्रभु के प्रेम में डुबो देता है, और जीवन को उनकी कृपा के रंग से भर देता है।
 
अमर नाग किंनर दिसिपाला। चित्रकूट आए तेहि काला।।
राम प्रनामु कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू।।
बरषि सुमन कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू।।
करि बिनती दुख दुसह सुनाए। हरषित निज निज सदन सिधाए।।
चित्रकूट रघुनंदनु छाए। समाचार सुनि सुनि मुनि आए।।
आवत देखि मुदित मुनिबृंदा। कीन्ह दंडवत रघुकुल चंदा।।
मुनि रघुबरहि लाइ उर लेहीं। सुफल होन हित आसिष देहीं।।
सिय सौमित्र राम छबि देखहिं। साधन सकल सफल करि लेखहिं।।
दो0-जथाजोग सनमानि प्रभु बिदा किए मुनिबृंद।
करहि जोग जप जाग तप निज आश्रमन्हि सुछंद।।134।।
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यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई।।
कंद मूल फल भरि भरि दोना। चले रंक जनु लूटन सोना।।
तिन्ह महँ जिन्ह देखे दोउ भ्राता। अपर तिन्हहि पूँछहि मगु जाता।।
कहत सुनत रघुबीर निकाई। आइ सबन्हि देखे रघुराई।।
करहिं जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे।।
चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े।।
राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने।।
प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिं कर जोरी।।
दो0-अब हम नाथ सनाथ सब भए देखि प्रभु पाय।
भाग हमारे आगमनु राउर कोसलराय।।135।।
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धन्य भूमि बन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा।।
धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुम्हहि निहारी।।
हम सब धन्य सहित परिवारा। दीख दरसु भरि नयन तुम्हारा।।
कीन्ह बासु भल ठाउँ बिचारी। इहाँ सकल रितु रहब सुखारी।।
हम सब भाँति करब सेवकाई। करि केहरि अहि बाघ बराई।।
बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा। सब हमार प्रभु पग पग जोहा।।
तहँ तहँ तुम्हहि अहेर खेलाउब। सर निरझर जलठाउँ देखाउब।।
हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता।।
दो0-बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना ऐन।
बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन।।136।।
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रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा।।
राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे।।
बिदा किए सिर नाइ सिधाए। प्रभु गुन कहत सुनत घर आए।।
एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई। बसहिं बिपिन सुर मुनि सुखदाई।।
जब ते आइ रहे रघुनायकु। तब तें भयउ बनु मंगलदायकु।।
फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना।।मंजु बलित बर बेलि बिताना।।
सुरतरु सरिस सुभायँ सुहाए। मनहुँ बिबुध बन परिहरि आए।।
गंज मंजुतर मधुकर श्रेनी। त्रिबिध बयारि बहइ सुख देनी।।
दो0-नीलकंठ कलकंठ सुक चातक चक्क चकोर।
भाँति भाँति बोलहिं बिहग श्रवन सुखद चित चोर।।137।।
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केरि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगतबैर बिचरहिं सब संगा।।
फिरत अहेर राम छबि देखी। होहिं मुदित मृगबंद बिसेषी।।
बिबुध बिपिन जहँ लगि जग माहीं। देखि राम बनु सकल सिहाहीं।।
सुरसरि सरसइ दिनकर कन्या। मेकलसुता गोदावरि धन्या।।
सब सर सिंधु नदी नद नाना। मंदाकिनि कर करहिं बखाना।।
उदय अस्त गिरि अरु कैलासू। मंदर मेरु सकल सुरबासू।।
सैल हिमाचल आदिक जेते। चित्रकूट जसु गावहिं तेते।।
बिंधि मुदित मन सुखु न समाई। श्रम बिनु बिपुल बड़ाई पाई।।
दो0-चित्रकूट के बिहग मृग बेलि बिटप तृन जाति।
पुन्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देव दिन राति।।138।।
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