कबीर के दोहे हिंदी Kabir Dohe Hindi Lyrics Text कबीर के दोहे हिंदी
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग ।
चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ॥
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय ।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ो जाय ॥
जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को इहै हवाल ।
तौ कहो कर पर धर्यो, गोवर्धन गोपाल ॥
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय ॥
जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय ।
बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अँधेरो होय ॥
जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट ।
भगत भगत कोउ बचि गये, चरन कमल की ओट ॥
जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट ।
समय परे ते होत है, वाही पट की चोट ॥
जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस ।
निठुरा आगे रायबो, आँस गारिबो खीस ॥
जो रहीम तन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं ।
जल में जो छाया परी, काया भीजति नाहिं ॥
जो रहीम भावी कतौं, होति आपुने हाथ ।
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावन साथ ॥
जो रहीम होती कहूँ, प्रभु-गति अपने हाथ ।
तौ कोधौं केहि मानतो, आप बड़ाई साथ ॥
जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटाय ।
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सों खाय ॥
टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार ।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार ॥
तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर ।
जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर ॥
तब ही लौ जीबो भलो, दीबो होय न धीम ।
जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम ॥
तरुवर फल नहिं खात हैं, सरबर पियहिं न पान ।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान ॥
तासों ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस ।
रीते सरवर पर गये, कैसे बुझे पियास ॥
तेहि प्रमान चलिबो भलो, जो सब हिद ठहराइ ।
उमड़ि चलै जल पार ते, जो रहीम बढ़ि जाइ ॥
तैं रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय ।
खस कागद को पूतरा, नमी माँहि खुल जाय ॥
थोथे बादर क्वाँर के, ज्यों रहीम घहरात ।
धनी पुरुष निर्धन भये, करै पाछिली बात ॥
थोरो किए बड़ेन की, बड़ी बड़ाई होय ।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहत न कोय ॥
दादुर, मोर, किसान मन, लग्यो रहै घन माँहि ।
रहिमन चातक रटनि हूँ, सरवर को कोउ नाहिं ॥
दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अंधु ।
भली बिचारी दीनता, दीनबन्धु से बन्धु ॥
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय ।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय ॥
दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं ।
ज्यों रहीम नट कुण्डली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं ॥
दुख नर सुनि हाँसी करै, धरत रहीम न धीर ।
कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर ॥
दुरदिन परे रहीम कहि, दुरथल जैयत भागि ।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागत आगि ॥
दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि ।
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि ॥
देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन ।
लोग भरम हम पै धरें, याते नीचे नैन ॥
दोनों रहिमन एक से, जौ लौं बोलत नाहिं ।
जान परत हैं काक पिक, ऋतु बसंत के माँहिं ॥
चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ॥
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय ।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ो जाय ॥
जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को इहै हवाल ।
तौ कहो कर पर धर्यो, गोवर्धन गोपाल ॥
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय ॥
जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय ।
बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अँधेरो होय ॥
जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट ।
भगत भगत कोउ बचि गये, चरन कमल की ओट ॥
जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट ।
समय परे ते होत है, वाही पट की चोट ॥
जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस ।
निठुरा आगे रायबो, आँस गारिबो खीस ॥
जो रहीम तन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं ।
जल में जो छाया परी, काया भीजति नाहिं ॥
जो रहीम भावी कतौं, होति आपुने हाथ ।
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावन साथ ॥
जो रहीम होती कहूँ, प्रभु-गति अपने हाथ ।
तौ कोधौं केहि मानतो, आप बड़ाई साथ ॥
जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटाय ।
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सों खाय ॥
टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार ।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार ॥
तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर ।
जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर ॥
तब ही लौ जीबो भलो, दीबो होय न धीम ।
जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम ॥
तरुवर फल नहिं खात हैं, सरबर पियहिं न पान ।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान ॥
तासों ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस ।
रीते सरवर पर गये, कैसे बुझे पियास ॥
तेहि प्रमान चलिबो भलो, जो सब हिद ठहराइ ।
उमड़ि चलै जल पार ते, जो रहीम बढ़ि जाइ ॥
तैं रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय ।
खस कागद को पूतरा, नमी माँहि खुल जाय ॥
थोथे बादर क्वाँर के, ज्यों रहीम घहरात ।
धनी पुरुष निर्धन भये, करै पाछिली बात ॥
थोरो किए बड़ेन की, बड़ी बड़ाई होय ।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहत न कोय ॥
दादुर, मोर, किसान मन, लग्यो रहै घन माँहि ।
रहिमन चातक रटनि हूँ, सरवर को कोउ नाहिं ॥
दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अंधु ।
भली बिचारी दीनता, दीनबन्धु से बन्धु ॥
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय ।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय ॥
दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं ।
ज्यों रहीम नट कुण्डली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं ॥
दुख नर सुनि हाँसी करै, धरत रहीम न धीर ।
कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर ॥
दुरदिन परे रहीम कहि, दुरथल जैयत भागि ।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागत आगि ॥
दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि ।
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि ॥
देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन ।
लोग भरम हम पै धरें, याते नीचे नैन ॥
दोनों रहिमन एक से, जौ लौं बोलत नाहिं ।
जान परत हैं काक पिक, ऋतु बसंत के माँहिं ॥
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कबीर के विचार वर्तमान परिप्रेक्ष्य में : कबीर के विचार The Thoughts of Kabir in the Present perspective
"हिंदी-साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा धनी व्यक्तित्व लेकर कोई अन्य लेखक उत्पन्न नहीं हुआ।" - हजारी प्रसाद द्विवेदी
कबीर
का साहित्य भारतीय चिंतन के विभिन्न आयामों का संकलन हैं। सम कालिक संत
रज्जबदास, मलूकदास सहजोबाई, दादूदयाल, सूरदास का संत साहित्य उल्लेखनीय
योगदान रहा है लेकिन अग्रिम पंक्ति में कबीरदास का नाम लिया जाता है। इसका
कारण है कि कबीर का साहित्य आम जन भाषा का ही था। कबीर की भाषा शैली लोगों
के जुबान पर थी। कबीर स्वंय कोई साहित्य नहीं लिखा, उन्होंने जो बोला वो
लोगों की जुबान पर चढ़ जाता था। कबीर के साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है
भाषा की सरलता। गूढ़ से गूढ़ बातें भी सरल ज़बान में समझाने का हुनर था कबीर
के पास। पांडित्य दिखाने के लिए उन्होंने कठिन शब्दों का चयन करने के बजाय
सरल शब्दों का चयन किया जिससे उनका सन्देश आम जन तक पहुंच गया।
साहित्य
समाज का दर्पण होता है। कबीरदास ने समाज में जो भी विसंगतियाँ,
अन्धविश्वाश, रूढ़िवाद, धार्मिक पाखंड, आचरण की अशुद्धता देखी उसे लिखा।
कबीर के सबसे बड़ी विशेषता है की उन्होंने कभी पाण्डित्यवाद नहीं दिखाया,
सरल शब्दों और बोल चाल की भाषा में अपनी बात रखी। कबीर ने समाज की इकाई
व्यक्ति पर जोर दिया। "बुरा
जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय".
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी कबीर के विचार महत्वपूर्ण हैं। आज के समाज में
हर कोई दूसरों के दोष देखता है, स्वंय का विश्लेषण नहीं करता है। यही कारन
है की समाज में वैमनश्य और ईर्ष्या बढ़ रही है। कबीर ने व्यक्ति के आचरण की
शुद्धत्ता पर बल दिया और अवसारवाद, स्वार्थ, ढोंग और चिंता जैसी बुराइयों
से दूर रहने को कहा जो आज भी प्रासंगिक है।
कबीर की और एक बात सबको आकर्षित करती है वो है उनका सरल शब्दों का चयन। कबीर का उद्देश्य कभी प्रकांड पांडित्य दिखाना नहीं रहा है। सरल से सरल शब्दों में गूढ़ से गूढ़ बात को कह देना ही कबीर का गुण है।
आज की भांति प्रतिवादी शक्तियां उस समय में भी थी, लेकिन कबीर ने प्रभावित हुए बगैर अपना स्वर मुखर रखा, चाहे वो हिन्दू हो या मुस्लिम।आज भी हम धर्म और जाती के आधार पर तनाव देखते हैं। अक्सर देखते हैं की चाहे वो आर्थिक प्रभाव हो फिर राजनैतिक आम जनता लाइनों में लगी रहती है और कुछ प्रभावशाली लोग सीधे मंदिर के गर्भगृह में जाकर ईश्वर का दर्शन कर लेते हैं। ये भी तो एक रूप में असमानता ही तो है। कबीर ने जातीय और जन्म के आधार पर श्रेष्ठता मानने से इंकार कर दिया। जब भी मौका लगा कबीर ने पोंगा पंडितों और मुल्ला मौलवियों के धार्मिक प्रबुद्धता को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसा नहीं की कबीर ने सिर्फ हिन्दू धर्म में कुरूतियों का खंडन किया बल्कि मुस्लिम समाज को भी उन्होंने आड़े हाथों लिया।
कबीर की और एक बात सबको आकर्षित करती है वो है उनका सरल शब्दों का चयन। कबीर का उद्देश्य कभी प्रकांड पांडित्य दिखाना नहीं रहा है। सरल से सरल शब्दों में गूढ़ से गूढ़ बात को कह देना ही कबीर का गुण है।
आज की भांति प्रतिवादी शक्तियां उस समय में भी थी, लेकिन कबीर ने प्रभावित हुए बगैर अपना स्वर मुखर रखा, चाहे वो हिन्दू हो या मुस्लिम।आज भी हम धर्म और जाती के आधार पर तनाव देखते हैं। अक्सर देखते हैं की चाहे वो आर्थिक प्रभाव हो फिर राजनैतिक आम जनता लाइनों में लगी रहती है और कुछ प्रभावशाली लोग सीधे मंदिर के गर्भगृह में जाकर ईश्वर का दर्शन कर लेते हैं। ये भी तो एक रूप में असमानता ही तो है। कबीर ने जातीय और जन्म के आधार पर श्रेष्ठता मानने से इंकार कर दिया। जब भी मौका लगा कबीर ने पोंगा पंडितों और मुल्ला मौलवियों के धार्मिक प्रबुद्धता को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसा नहीं की कबीर ने सिर्फ हिन्दू धर्म में कुरूतियों का खंडन किया बल्कि मुस्लिम समाज को भी उन्होंने आड़े हाथों लिया।
एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चम् एक गूदा।
एक जोति थैं सब उत्पन्ना, कौन बाम्हन कौन सूदा।।
वैष्णव भया तो क्या भया बूझा नहीं विवेक।
छाया तिलक बनाय कर दराधिया लोक अनेक।।
प्रेम प्याला जो पिए, शीश दक्षिणा दे l
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का ले ll
काँकर-पाथर जोरि के मस्जिद लियो चुनाय।
त चढ़ि मुल्ला बाँग दे क्या बहरो भयो खुदाय ॥
एकहि जोति सकल घट व्यापत दूजा तत्त न होई।
कहै कबीर सुनौ रे संतो भटकि मरै जनि कोई॥
वर्तमान
समय में आर्थिक कद ही व्यक्ति की प्रतिष्ठा का पैमाना बनकर रह गया है।
व्यक्तिगत गुण गौण हो चुके। कबीर ने इस मानवीय दोष को उजागर करने में कोई
कसर नहीं रखी। वर्तमान में देखें तो नेता का बेटा नेता बन रहा है। चूँकि
उसे अन्य लोगों की तरह से संघर्ष नहीं करना पड़ता है, वो आम आदमी से आगे
रहता है। अमीर और अधिक अमीर बनता जा रहा है और गरीब और अधिक गरीब। आर्थिक
असमानता के कारन संघर्ष और तनाव का माहौल है। कबीर ने कर्मप्रधान समाज को
सराहा और जन्म के आधार पर श्रेष्ठता को सिरे से नकार दिया। छः सो साल बाद
आज भी कबीर के विचारों की प्रासंगिकता ज्यों की त्यों है। कबीर का तो मानो
पूरा जीवन ही समाज की कुरीतियों को मिटाने के लिए समर्पित था। आज के
वैज्ञानिक युग में भी बात जहाँ "धर्म" की आती है, तर्किता शून्य हो जाती
है। ये विषय मनन योग्य है।
ऊंचे कुल का जनमिया करनी ऊंच न होय ।
सुबरन कलश सुरा भरा साधू निन्दत सोय
सुबरन कलश सुरा भरा साधू निन्दत सोय
कबीर
ने सदैव स्वंय के विश्लेषण पर जोर दिया। स्वंय की कमियों को पहचानने के
बाद हम शांत हो जाते है। पराये दोष और उपलब्धियों और दोष को देखकर हम कुढ़ते
हैं जो मानसिक रुग्णता का सूचक यही। यही कारन हैं की आज कल "पीस ऑफ़ माइंड"
जैसे कार्यकर्म चलाये जाते हैं।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय
धर्म
और समाज के बीच में आम आदमी पिसता जा रहा है। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य
गौण जो चुका है। वैश्विक स्तर पर देखें तो आज भी धर्म के नाम पर राष्ट्रों
में संघर्ष होता रहता है। विलासिता के इस युग में ज्यादा से ज्यादा संसाधन
जुटाने की फिराक में मानसिक शांति कहीं नजर नहीं आती है। ईश्वर की भक्ति
ही सत्य का मार्ग है। कबीर की मानव के प्रति संवेदनशीलता इस दोहे में देखी जा सकती है।
चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय ।
माया अस्थिर है। माया स्थिरनहीं है इसलिए इस पर गुमान करना व्यर्थ है, सपने में प्राप्त राज धन जाने में कोई वक़्त नहीं लगता है।ज्यादातर समस्याओं का कारन ह तृष्णा है।
दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय ॥
जहाँ
एक और हर एक सुविधा और विलासिता प्राप्त करने की दौड़ मची है, सब आपाधापी
छोड़कर कबीर का मानना है की संतोष ही सुखी जीवन की कुंजी है जो आज भी
प्रासंगिक है। कबीर ने मानव जीवन का गहराई से अध्ययन किया और पाया की धन और
माया के जाल में फंसकर व्यक्ति दुखी है।
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
कबीर माया डाकिनी, सब काहु को खाये
दांत उपारुन पापिनी, संनतो नियरे जाये।
ज्ञान
प्राप्ति पर ही भ्रम की दिवार गिरती है। ज्ञान प्राप्ति के बाद ही यह बोध
होता है की "माया " क्या है। माया के भ्रम की दिवार ज्ञान की प्राप्ति के
बाद ही गिरती है। माया से हेत छूटने के बाद ही राम से प्रीत लगती है।
आंधी आयी ज्ञान की, ढ़ाहि भरम की भीति
माया टाटी उर गयी, लागी राम सो प्रीति।
माया जुगाबै कौन गुन, अंत ना आबै काज
सो राम नाम जोगबहु, भये परमारथ साज।
माया अस्थिर है। माया स्थिरनहीं है इसलिए इस पर गुमान करना व्यर्थ है, सपने में प्राप्त राज धन जाने में कोई वक़्त नहीं लगता है।ज्यादातर समस्याओं का कारन ह तृष्णा है।
माया
और तृष्णा का जाल चारों और फैला है। माया ने जीवन के उद्देश्य को धूमिल
कर दिया है। जितने भी अपराध हैं उनके पीछे माया और तृष्णा ही एक कारण है।
माया अपना फन्दा लेकर बाजार में बैठी है, सारा जग उस फंदे में फँस कर रह
गया है, एक कबीरा हैं जिसने उसे काट दिया है।
कबीर माया पापिनी, फंद ले बैठी हाट
सब जग तो फंदे परा, गया कबीरा काट।
सब जग तो फंदे परा, गया कबीरा काट।
माया का सुख चार दिन, काहै तु गहे गमार
सपने पायो राज धन, जात ना लागे बार।
माया चार प्रकार की, ऐक बिलसै एक खाये
एक मिलाबै राम को, ऐक नरक लै जाये।
कबीर या संसार की, झुठी माया मोह
तिहि घर जिता बाघबना, तिहि घर तेता दोह।
कबीर माया रुखरी, दो फल की दातार
खाबत खर्चत मुक्ति भय, संचत नरक दुआर।
माया गया जीव सब,ठाऱी रहै कर जोरि
जिन सिरजय जल बूंद सो, तासो बैठा तोरि।
खान खर्च बहु अंतरा, मन मे देखु विचार
ऐक खबाबै साधु को, ऐक मिलाबै छार।
गुरु को चेला बिश दे, जो गठि होये दाम
पूत पिता को मारसी ये माया को काम।
कबीर माया पापिनी, हरि सो करै हराम
मुख कदियाली, कुबुधि की, कहा ना देयी राम।
धन,
मोह लोभ छोड़ने मात्र से भी ईश्वर की प्राप्ति हो ही जाए जरुरी नहीं है,
बल्कि सच्चे मन से ईश्वर की भक्ति की आवश्यकता ज्यो की त्यों बनी रहती है।
पशु पक्षी धन का संचय नहीं करते हैं और ना ही पावों में जुटे पहनते हैं।
आने वाले कल के लिए किसी वस्तु का संग्रह भी नहीं करते हैं लेकिन उन्हें भी
सृजनहार "ईश्वर" की प्राप्ति नहीं होती है। स्पष्ट है की मन को भक्ति में
लगाना होगा।
कबीर पशु पैसा ना गहै, ना पहिरै पैजार
ना कछु राखै सुबह को, मिलय ना सिरजनहार।
इच्छाओं
और तृष्णाओं के मकड़जाल में आम आदमी फंस कर रह गया है। ज्ञान क्या है ?
ज्ञान यही है की बेहताशा तृष्णा और इच्छाओं पर लगाम लगाना। इनका शमन करने
के लिए गुरु का ज्ञान और जीवन में आध्यात्मिकता होना जरुरी है।
’जोगी दुखिया जंगम दुखिया तपसी कौ दुख दूना हो।
आसा त्रिसना सबको व्यापै कोई महल न सूना हो।
वर्तमान
समय में आध्यात्मिक साधना के लिए समय नहीं है। कबीर उदहारण देकर समझाते
हैं की जीवन में ईश्वर भक्ति का महत्त्व है। जीवन की उत्पत्ति के समय सर के
बल निचे झुक कर मा की गर्भ के समय को याद रखना चाहिए। हमने अपने बाहर एक
आवरण बना रखा है। जीवन में सुख सुविधा जुटाने की दौड़ में हमारा जीवन बीतता
चला जा रहा है और हम ईश्वर से दूर होते जा रहे हैं। जीवन क्षण भंगुर है और
समय रहते ईश्वर का ध्यान आवशयक है।
अर्घ कपाले झूलता, सो दिन करले याद
जठरा सेती राखिया, नाहि पुरुष कर बाद।
जठरा सेती राखिया, नाहि पुरुष कर बाद।
आठ पहर यूॅ ही गया, माया मोह जंजाल
राम नाम हृदय नहीं, जीत लिया जम काल।
राम नाम हृदय नहीं, जीत लिया जम काल।
ऐक दिन ऐसा होयेगा, सब सो परै बिछोह
राजा राना राव रंक, साबधान क्यो नहिं होये।
राजा राना राव रंक, साबधान क्यो नहिं होये।
विनम्र निवेदन: वेबसाइट को और बेहतर बनाने हेतु अपने कीमती सुझाव नीचे कॉमेंट बॉक्स में लिखें व इस ज्ञानवर्धक ख़जाने को अपनें मित्रों के साथ अवश्य शेयर करें। यदि कोई त्रुटि / सुधार हो तो आप मुझे यहाँ क्लिक करके ई मेल के माध्यम से भी सम्पर्क कर सकते हैं। धन्यवाद।