रहीम के दोहे यहाँ जानिये सरल अर्थ
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग ।
चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ॥
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय ।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ो जाय ॥
जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को इहै हवाल ।
तौ कहो कर पर धर्यो, गोवर्धन गोपाल ॥
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय ॥
जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय ।
बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अँधेरो होय ॥
जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट ।
भगत भगत कोउ बचि गये, चरन कमल की ओट ॥
जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट ।
समय परे ते होत है, वाही पट की चोट ॥
जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस ।
निठुरा आगे रायबो, आँस गारिबो खीस ॥
जो रहीम तन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं ।
जल में जो छाया परी, काया भीजति नाहिं ॥
जो रहीम भावी कतौं, होति आपुने हाथ ।
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावन साथ ॥
जो रहीम होती कहूँ, प्रभु-गति अपने हाथ ।
तौ कोधौं केहि मानतो, आप बड़ाई साथ ॥
जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटाय ।
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सों खाय ॥
टूटे सुजन मनाइए, जौ टूटे सौ बार ।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार ॥
तन रहीम है कर्म बस, मन राखो ओहि ओर ।
जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर ॥
तब ही लौ जीबो भलो, दीबो होय न धीम ।
जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम ॥
तरुवर फल नहिं खात हैं, सरबर पियहिं न पान ।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान ॥
तासों ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस ।
रीते सरवर पर गये, कैसे बुझे पियास ॥
तेहि प्रमान चलिबो भलो, जो सब हिद ठहराइ ।
उमड़ि चलै जल पार ते, जो रहीम बढ़ि जाइ ॥
तैं रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय ।
खस कागद को पूतरा, नमी माँहि खुल जाय ॥
थोथे बादर क्वाँर के, ज्यों रहीम घहरात ।
धनी पुरुष निर्धन भये, करै पाछिली बात ॥
थोरो किए बड़ेन की, बड़ी बड़ाई होय ।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहत न कोय ॥
दादुर, मोर, किसान मन, लग्यो रहै घन माँहि ।
रहिमन चातक रटनि हूँ, सरवर को कोउ नाहिं ॥
दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अंधु ।
भली बिचारी दीनता, दीनबन्धु से बन्धु ॥
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय ।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबंधु सम होय ॥
दीरघ दोहा अरथ के, आखर थोरे आहिं ।
ज्यों रहीम नट कुण्डली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं ॥
दुख नर सुनि हाँसी करै, धरत रहीम न धीर ।
कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर ॥
दुरदिन परे रहीम कहि, दुरथल जैयत भागि ।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागत आगि ॥
दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि ।
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि ॥
देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन ।
लोग भरम हम पै धरें, याते नीचे नैन ॥
दोनों रहिमन एक से, जौ लौं बोलत नाहिं ।
जान परत हैं काक पिक, ऋतु बसंत के माँहिं ॥
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग। चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥
रहीम कहते हैं कि उत्तम स्वभाव वाले व्यक्ति पर बुरी संगति का प्रभाव नहीं पड़ता, जैसे चंदन के वृक्ष से सर्प लिपटे रहते हैं, फिर भी उसमें विष का प्रभाव नहीं होता।
जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय। प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ों टेढ़ो जाय॥
रहीम कहते हैं कि नीच व्यक्ति यदि ऊँचे पद पर पहुँच जाए, तो अत्यधिक घमंड करता है। जैसे शतरंज में प्यादा फरजी (वज़ीर) बनकर टेढ़ा-टेढ़ा चलता है।
जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को इहै हवाल। तौ कहो कर पर धर्यो, गोवर्धन गोपाल॥
रहीम कहते हैं कि यदि ब्रज की रक्षा करनी थी, तो गोपाल ने अपने हाथ पर गोवर्धन पर्वत क्यों उठाया? अर्थात् सच्चे नेता वही हैं जो अपने कर्म से दूसरों की रक्षा करते हैं।
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय। बारे उजियारो लगे, बढ़े अँधेरो होय॥
रहीम कहते हैं कि दीपक की तरह कुल के कुपुत्र की भी यही गति होती है; प्रारंभ में उजाला करता है, परंतु जैसे-जैसे बढ़ता है, अंधेरा फैलाता है।
जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय। बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अँधेरो होय॥
रहीम कहते हैं कि दीपक की तरह सपूत पुत्र की भी यही गति होती है; उसके होने से घर में उजाला रहता है, और उसके जाने से अंधेरा हो जाता है।
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कबीर
का साहित्य भारतीय चिंतन के विभिन्न आयामों का संकलन हैं। सम कालिक संत
रज्जबदास, मलूकदास सहजोबाई, दादूदयाल, सूरदास का संत साहित्य उल्लेखनीय
योगदान रहा है लेकिन अग्रिम पंक्ति में कबीरदास का नाम लिया जाता है। इसका
कारण है कि कबीर का साहित्य आम जन भाषा का ही था। कबीर की भाषा शैली लोगों
के जुबान पर थी। कबीर स्वंय कोई साहित्य नहीं लिखा, उन्होंने जो बोला वो
लोगों की जुबान पर चढ़ जाता था। कबीर के साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है
भाषा की सरलता। गूढ़ से गूढ़ बातें भी सरल ज़बान में समझाने का हुनर था कबीर
के पास। पांडित्य दिखाने के लिए उन्होंने कठिन शब्दों का चयन करने के बजाय
सरल शब्दों का चयन किया जिससे उनका सन्देश आम जन तक पहुंच गया।
एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चम् एक गूदा।
एक जोति थैं सब उत्पन्ना, कौन बाम्हन कौन सूदा।।
वैष्णव भया तो क्या भया बूझा नहीं विवेक।
छाया तिलक बनाय कर दराधिया लोक अनेक।।
प्रेम प्याला जो पिए, शीश दक्षिणा दे l
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का ले ll
काँकर-पाथर जोरि के मस्जिद लियो चुनाय।
त चढ़ि मुल्ला बाँग दे क्या बहरो भयो खुदाय ॥
एकहि जोति सकल घट व्यापत दूजा तत्त न होई।
कहै कबीर सुनौ रे संतो भटकि मरै जनि कोई॥
वर्तमान
समय में आर्थिक कद ही व्यक्ति की प्रतिष्ठा का पैमाना बनकर रह गया है।
व्यक्तिगत गुण गौण हो चुके। कबीर ने इस मानवीय दोष को उजागर करने में कोई
कसर नहीं रखी। वर्तमान में देखें तो नेता का बेटा नेता बन रहा है। चूँकि
उसे अन्य लोगों की तरह से संघर्ष नहीं करना पड़ता है, वो आम आदमी से आगे
रहता है। अमीर और अधिक अमीर बनता जा रहा है और गरीब और अधिक गरीब। आर्थिक
असमानता के कारन संघर्ष और तनाव का माहौल है। कबीर ने कर्मप्रधान समाज को
सराहा और जन्म के आधार पर श्रेष्ठता को सिरे से नकार दिया। छः सो साल बाद
आज भी कबीर के विचारों की प्रासंगिकता ज्यों की त्यों है। कबीर का तो मानो
पूरा जीवन ही समाज की कुरीतियों को मिटाने के लिए समर्पित था। आज के
वैज्ञानिक युग में भी बात जहाँ "धर्म" की आती है, तर्किता शून्य हो जाती
है। ये विषय मनन योग्य है।