अर्गला स्तोत्रम् जानिये अर्थ और महत्त्व सरल हिंदी में
॥अथ श्री देव्याः कवचम्॥ ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, चामुण्डा देवता, अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः। ॐ नमश्चण्डिकायै॥ मार्कण्डेय उवाच ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्। यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥ ब्रह्मोवाच अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्। देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥ प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥३॥ पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥ नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः। उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥ अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे। विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥ न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे। नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥७॥ यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते। ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥ प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना। ऐन्द्री गजसमारुढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥ माहेश्वरी वृषारुढा कौमारी शिखिवाहना। लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥ श्वेतरुपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना। ब्राह्मी हंससमारुढा सर्वाभरणभूषिता॥११॥ इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः। नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः॥१२॥ दृश्यन्ते रथमारुढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः। शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥१३॥ खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च। कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥१४॥ दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च। धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै॥१५॥ नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे। महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥१६॥ त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि। प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥ दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्गधारिणी। प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥ उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी। ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥१९॥ एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना। जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥ अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता। शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥ मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी। त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥२२॥ शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी। कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी॥२३॥ नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका। अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥२४॥ दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका। घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ॥२५॥ कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला। ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥२६॥ नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी। स्कन्धयोः खङ्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी॥२७॥ हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च। नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी॥२८॥ स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी। हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥ नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा। पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ॥३०॥ कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी। जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥३१॥ गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी। पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी॥३२॥ नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी। रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥३३॥ रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती। अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥३४॥ पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा, ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु॥३५॥ शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा। अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥ प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्। वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥३७॥ रसे रुपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी। सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३८॥ आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी। यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥३९॥ गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके। पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥४०॥ पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा। राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥४१॥ रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु। तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥ पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः। कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥४३॥ तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः। यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्। परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥४४॥ निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः। त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥४५॥ इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् । यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥ दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः। जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः। ४७॥ नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः। स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥४८॥ अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले। भूचराः खेचराश्चैव जलजाश्चोपदेशिकाः॥४९॥ सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा। अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः॥५०॥ ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः। ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥५१॥ नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते। मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्॥५२॥ यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले। जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा॥५३॥ यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्। तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥ देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्। प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥ लभते परमं रुपं शिवेन सह मोदते॥ॐ॥५६॥ इति देव्याः कवचं सम्पूर्णम्। अर्गला स्तोत्रम् जयत्वंदेविचामुण्डेजयभूतापहारिणि। जयसर्वगतेदेविकालरात्रिनमोऽस्तुते॥१॥ जयन्तीमङ्गलाकालीभद्रकालीकपालिनी। दुर्गाशिवाक्षमाधात्रीस्वाहास्वधानमोऽस्तुते॥२॥ मधुकैटभविध्वंसिविधातृवरदेनमः। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥३॥ महिषासुरनिर्नाशिभक्तानांसुखदेनमः। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥४॥ धूम्रनेत्रवधेदेविधर्मकामार्थदायिनि। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥५॥ रक्तबीजवधेदेविचण्डमुण्डविनाशिनि। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥६॥ निशुम्भशुम्भनिर्नाशित्रैलोक्यशुभदेनमः। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥७॥ वन्दिताङ्घ्रियुगेदेविसर्वसौभाग्यदायिनि। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥८॥ अचिन्त्यरूपचरितेसर्वशत्रुविनाशिनि। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥९॥ नतेभ्यःसर्वदाभक्त्याचापर्णेदुरितापहे। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥१०॥ स्तुवद्भयोभक्तिपूर्वंत्वांचण्डिकेव्याधिनाशिनि। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥११॥ चण्डिकेसततंयुद्धेजयन्तिपापनाशिनि। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥१२॥ देहिसौभाग्यमारोग्यंदेहिदेविपरंसुखम्। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥१३॥ विधेहिदेविकल्याणंविधेहिविपुलांश्रियम्। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥१४॥ विधेहिद्विषतांनाशंविधेहिबलमुच्चकैः। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥१५॥ सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥१६॥ विद्यावन्तंयशस्वन्तंलक्ष्मीवन्तञ्चमांकुरु। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥१७॥ देविप्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पनिषूदिनि। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥१८॥ प्रचण्डदैत्यदर्पघ्नेचण्डिकेप्रणतायमे। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥१९॥ चतुर्भुजेचतुर्वक्त्रसंस्तुतेपरमेश्वरि। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥२०॥ कृष्णेनसंस्तुतेदेविशश्वद्भक्त्यासदाम्बिके। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥२१॥ हिमाचलसुतानाथसंस्तुतेपरमेश्वरि। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥२२॥ इन्द्राणीपतिसद्भावपूजितेपरमेश्वरि। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥२३॥ देविभक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥२४॥ भार्यामनोरमांदेहिमनोवृत्तानुसारिणीम्। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥२५॥ तारिणिदुर्गसंसारसागरस्याचलोद्भवे। रूपंदेहिजयंदेहियशोदेहिद्विषोजहि॥२६॥ इदंस्तोत्रंपठित्वातुमहास्तोत्रपठेन्नरः। सप्तशतींसमाराध्यवरमाप्नोतिदुर्लभम्॥२७॥ ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्। यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
VIDEO
अर्गला स्तोत्र देवी माहात्म्य के अंतर्गत एक शुभ और लाभकारी स्तोत्र है। यह स्तोत्र दुर्गा कवच के बाद और कीलक स्तोत्र के पहले पढ़ा जाता है। नवरात्रि के अलावा, इस स्तोत्र का पाठ देवी पूजन या सप्तशती पाठ के साथ भी किया जाता है। अर्गला स्तोत्र में, भक्त देवी दुर्गा की स्तुति करते हैं और उनसे अपने सभी कष्टों से मुक्ति और अपनी सभी मनोकामनाओं की पूर्ति की प्रार्थना करते हैं। स्तोत्र में, भक्त देवी दुर्गा को विभिन्न नामों और रूपों से पुकारते हैं, जैसे कि चामुंडा, भद्रकाली, और क्षमा।
क्या है अर्गला स्त्रोतम और अर्गला स्त्रोतम के क्या लाभ हैं : अर्गला स्त्रोतम माँ भगवती का प्रिय है। दुर्गा सप्तसती में अर्गला स्त्रोतम का विवरण प्राप्त होता है। माता रानी बहुत ही दयालु और अपने पार्थी को आशीर्वाद देने वाली हैं। जो जातक अर्गला स्त्रोतम का नियमित पाठ करता है उसे माता रानी की विशेष कृपा प्राप्त होती है और उसे समस्त सांसारिक सुखों के साथ वैभव, स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। अर्गला स्त्रोत से माँ दुर्गा को प्रसन्न किया जा सकता है और जातक मनवांछित फल प्राप्त करता है जैसे जीवन में सुख शांति, आरोग्य, धन धान्य और वैभव। दुर्गा सप्तशती में पहले देवी कवच का पाठ किया जाता है और उसके बाद में अर्गला स्त्रोतम का पाठ करने का नियम है जिसे सख्ती से पालन किया जाना चाहिए। "अर्गला" का शाब्दिक अर्थ होता है आगे या अग्रिम। संसार में सभी दुःख दर्द का अंत देवी माँ करती है, हमें चाहिए की हम आगे बढ़कर पवित्र मन से माता रानी की भक्ति करें। अर्गला स्त्रोतम में सभी मंत्र सिद्ध हैं और मारन और वशीकरण से जुड़े हुए मंत्र हैं। अर्गला स्त्रोतम की विशेष बात है की इसमें देवी माँ से सही मन्त्रों में यश, कीर्ति, विजय और शत्रुओं का अंत करने की विनती की गयी है। इस स्त्रोत का जाप करने से पहले देवी कवच का पाठ किया जाता हो की अनिवार्य है और जातक को समस्त बाधाओं से उसी रक्षा करता है।
कैसे करें अर्गला स्तोत्र का पाठ 1. सर्वप्रथम सरसो या तिल के तेल का दीपक जलाएं 2. सरसों का दीपक जलाने के बाद माता चामुण्डा देवी का ध्यान करें और उनसे संवाद करें और पुकारें 3. अर्गला स्तोत्र का संकल्प देवी भगवती से प्राप्त और अपनी इच्छा देवी के समक्ष व्यक्त करें 4. अर्गला स्तोत्र में तांत्रिक के बजाय मंत्र शक्ति का प्रयोग किया जाना चाहिए। 5. अर्गला स्तोत्र का यथा संभव तीन बार या सात बार पाठ करें 6.अर्गला स्तोत्र का प्रात: काल स्नान करके या मध्य रात्रि में किया जाना चाहिए। आपको ये पोस्ट पसंद आ सकती हैं