कबीर के दोहे साखी हिन्दी अर्थ सहित Kabir Dohe Sakhi Meaning

कबीर के दोहे साखी हिन्दी अर्थ सहित Kabir Dohe Sakhi Hindi Meaning

सो जोगी जाकै मन मैं मुद्रा, रात दिवस न करई निद्रा॥टेक॥
मन मैं आँसण मन मैं रहणाँ, मन का जप तप मन सूँ कहणाँ॥
मन मैं षपरा मन मैं सींगी, अनहद बेन बजावै रंगी।
पंच परजारि भसम करि भूका, कहै कबीर सौ लहसै लंका॥


चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय।
दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय॥
 
कबीर के दोहे साखी हिन्दी अर्थ सहित Kabir Dohe Sakhi Hindi Meaning

जहाँ एक और हर एक सुविधा और विलासिता प्राप्त करने की दौड़ मची है, सब आपाधापी छोड़कर कबीर का मानना है की संतोष ही सुखी जीवन की कुंजी है जो आज भी प्रासंगिक है। कबीर ने मानव जीवन का गहराई से अध्ययन किया और पाया की धन और माया के जाल में फंसकर व्यक्ति दुखी है।

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥

कबीर माया डाकिनी, सब काहु को खाये
दांत उपारुन पापिनी, संनतो नियरे जाये।


ज्ञान प्राप्ति पर ही भ्रम की दिवार गिरती है। ज्ञान प्राप्ति के बाद ही यह बोध होता है की "माया " क्या है। माया के भ्रम की दिवार ज्ञान की प्राप्ति के बाद ही गिरती है। माया से हेत छूटने के बाद ही राम से प्रीत लगती है।

आंधी आयी ज्ञान की, ढ़ाहि भरम की भीति
माया टाटी उर गयी, लागी राम सो प्रीति।

माया जुगाबै कौन गुन, अंत ना आबै काज
सो राम नाम जोगबहु, भये परमारथ साज।

माया अस्थिर है। माया स्थिरनहीं है इसलिए इस पर गुमान करना व्यर्थ है, सपने में प्राप्त राज धन जाने में कोई वक़्त नहीं लगता है।ज्यादातर समस्याओं का कारन ह तृष्णा है।
माया और तृष्णा का जाल चारों और फैला है। माया ने जीवन के उद्देश्य को धूमिल कर दिया है। जितने भी अपराध हैं उनके पीछे माया और तृष्णा ही एक कारण है। माया अपना फन्दा लेकर बाजार में बैठी है, सारा जग उस फंदे में फँस कर रह गया है, एक कबीरा हैं जिसने उसे काट दिया है।

कबीर माया पापिनी, फंद ले बैठी हाट
सब जग तो फंदे परा, गया कबीरा काट।

माया का सुख चार दिन, काहै तु गहे गमार
सपने पायो राज धन, जात ना लागे बार।

माया चार प्रकार की, ऐक बिलसै एक खाये
एक मिलाबै राम को, ऐक नरक लै जाये।

कबीर या संसार की, झुठी माया मोह
तिहि घर जिता बाघबना, तिहि घर तेता दोह।

कबीर माया रुखरी, दो फल की दातार
खाबत खर्चत मुक्ति भय, संचत नरक दुआर।

माया गया जीव सब,ठाऱी रहै कर जोरि
जिन सिरजय जल बूंद सो, तासो बैठा तोरि।

खान खर्च बहु अंतरा, मन मे देखु विचार
ऐक खबाबै साधु को, ऐक मिलाबै छार।

गुरु को चेला बिश दे, जो गठि होये दाम
पूत पिता को मारसी ये माया को काम।

कबीर माया पापिनी, हरि सो करै हराम
मुख कदियाली, कुबुधि की, कहा ना देयी राम।


धन, मोह लोभ छोड़ने मात्र से भी ईश्वर की प्राप्ति हो ही जाए जरुरी नहीं है, बल्कि सच्चे मन से ईश्वर की भक्ति की आवश्यकता ज्यो की त्यों बनी रहती है। पशु पक्षी धन का संचय नहीं करते हैं और ना ही पावों में जुटे पहनते हैं। आने वाले कल के लिए किसी वस्तु का संग्रह भी नहीं करते हैं लेकिन उन्हें भी सृजनहार "ईश्वर" की प्राप्ति नहीं होती है। स्पष्ट है की मन को भक्ति में लगाना होगा।

कबीर पशु पैसा ना गहै, ना पहिरै पैजार
ना कछु राखै सुबह को, मिलय ना सिरजनहार।

इच्छाओं और तृष्णाओं के मकड़जाल में आम आदमी फंस कर रह गया है। ज्ञान क्या है ? ज्ञान यही है की बेहताशा तृष्णा और इच्छाओं पर लगाम लगाना। इनका शमन करने के लिए गुरु का ज्ञान और जीवन में आध्यात्मिकता होना जरुरी है।

जोगी दुखिया जंगम दुखिया तपसी कौ दुख दूना हो।
आसा त्रिसना सबको व्यापै कोई महल न सूना हो।


वर्तमान समय में आध्यात्मिक साधना के लिए समय नहीं है। कबीर उदहारण देकर समझाते हैं की जीवन में ईश्वर भक्ति का महत्त्व है। जीवन की उत्पत्ति के समय सर के बल निचे झुक कर मा की गर्भ के समय को याद रखना चाहिए। हमने अपने बाहर एक आवरण बना रखा है। जीवन में सुख सुविधा जुटाने की दौड़ में हमारा जीवन बीतता चला जा रहा है और हम ईश्वर से दूर होते जा रहे हैं। जीवन क्षण भंगुर है और समय रहते ईश्वर का ध्यान आवशयक है।

अर्घ कपाले झूलता, सो दिन करले याद
जठरा सेती राखिया, नाहि पुरुष कर बाद।

आठ पहर यू ही गया, माया मोह जंजाल
राम नाम हृदय नहीं, जीत लिया जम काल।

ऐक दिन ऐसा होयेगा, सब सो परै बिछोह
राजा राना राव रंक, साबधान क्यो नहिं होये।
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Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

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