अपने करम की गति मैं क्या जानूँ

अपने करम की गति मैं क्या जानूँ

अपने करम की गति मैं क्या जानूँ, मैं क्या जानूँ बाबा रे ।
नर मरै किछु काम न आवे, पसु मरै दस काज संवारे ।
अपने करम की गति मैं क्या जानूँ, मैं क्या जानूँ बाबा रे
हाड़ जलै जैसे लकड़ी का तूला, केस जलै जैसे गास का पूला ।
अपने करम की गति मैं क्या जानूँ, मैं क्या जानूँ बाबा रे
कहै कबीर तब ही नर जागै, जम का ड़ंड़ मुंड़ में लागै ।
अपने करम की गति मैं क्या जानूँ, मैं क्या जानूँ बाबा रे 
 
"अपने करम की गति मैं क्या जानूँ, मैं क्या जानूँ बाबा रे"
कबीरदास जी कहते हैं कि वे अपने कर्मों के परिणामों को नहीं जानते; यह स्वीकारोक्ति मानव की सीमित समझ को दर्शाती है।

"नर मरै किछु काम न आवे, पसु मरै दस काज संवारे"
मनुष्य की मृत्यु पर उसका शरीर किसी उपयोग का नहीं रहता, जबकि पशु की मृत्यु पर उसका शरीर कई कार्यों में आता है, जैसे दूध, चमड़ा आदि।

"हाड़ जलै जैसे लकड़ी का तूला, केस जलै जैसे गास का पूला"
मनुष्य की हड्डियाँ जलने पर लकड़ी की तरह और बाल घास की तरह जलते हैं, जो शरीर की क्षणभंगुरता को दर्शाता है।

"कहै कबीर तब ही नर जागै, जम का डंड मुंड में लागै"
कबीर कहते हैं कि मनुष्य तब ही जागरूक होता है जब यमराज का दंड उसके सिर पर पड़ता है, अर्थात मृत्यु निकट होती है।

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