गुरु को सिर राखिये चलिये आज्ञा माहिं हिंदी मीनिंग कबीर के दोहे

गुरु को सिर राखिये चलिये आज्ञा माहिं-हिंदी मीनिंग Guru Ko Sir Rakhiye Chaliye Aagya Mahi Hindi Meaning Kabir Ke Dohe Hindi Arth Sahit


गुरु को सिर राखिये चलिये आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं॥
 
Guru Ko Sir Raakhiye Chaliye Aagya Maahin.
Kahain Kabeer Ta Daas Ko, Teen Lokon Bhay Naahin. 
 
गुरु को सिर राखिये चलिये आज्ञा माहिं हिंदी मीनिंग Guru Ko Sir Rakhiye Chaliye Aagya Mahi Hindi Meaning

सिर रखिये : मान अभिमान करना/गुरु को सबसे ऊपर रखना। 
चलिए आज्ञा माहि : गुरु की आज्ञा के अनुसार ही कार्य करना। 
तीन लोक भय नाही : तीनों लोकों में कोई भय नहीं होगा। 
 
दोहे का हिंदी मीनिंग: भय है अधर्म का, अन्याय का और हरी से विरक्ति का, यदि साधक अपने गुरु की बताये हुए मार्ग पर चले तो उसे तीनों लोकों में कोई भय नहीं सताता है। यह गुरु की ही महिमा है की एक अन्य स्थान पर कबीर साहेब कहते हैं की मैं गुरु को प्रथम वंदन करूँगा क्योंकि उन्होंने ही गोविन्द से परिचय करवाया है।  
 
गुरु महिमा गावत सदा, मन राखो अतिमोद ।
सो भव फिर आवै नहीं, बैठे प्रभू की गोद ।।
Guru Mahima Gaavat Sada, Man Raakho Atimod .
So Bhav Phir Aavai Nahin, Baithe Prabhoo Kee God  

गुरु की महिमा गाते रहिये, और गुरु के वचनों में ध्यान लगाए, ऐसा जीव जन्म मरण के फेर से मुक्त हो जाता है और फिर कभी इस जगत में नहीं आता है, वह प्रभु की गोद में बैठने का अधिकारी बन जाता है।

यह भी देखें You May Also Like

 
सतगुरू से सूधा भया, शब्द जु लागा अंग।
उठी लहरि समुंद की, भीजि गया सब अंग॥
शब्दै मारा खैंचि करि, तब हम पाया ज्ञान।
लगी चोट जो शब्द की, रही कलेजे छान॥
सतगुरू बङे सराफ़ है, परखे खरा रु खोट।
भौसागर ते काढ़ि के, राखै अपनी ओट॥
सदगुरू बङे जहाज हैं, जो कोई बैठे आय।
पार उतारै और को, अपनो पारस लाय॥
सदगुरू बङे सुनार हैं, परखे वस्तु भंडार।
सुरतिहि निरति मिलाय के, मेटि डारे खुटकार॥
सतगुरू के सदके किया, दिल अपने को सांच।
कलियुग हमसों लङि पङा, मुहकम मेरा बांच॥
सतगुरू मिलि निर्भय भया, रही न दूजी आस।
जाय समाना शब्द में, सत्त नाम विश्वास॥
सदगुरू मोहि निवाजिया, दीन्हा अंमर बोल।
सीतल छाया सुगम फ़ल, हंसा करैं किलोल॥
सदगुरू पारस के सिला, देखो सोचि विचार।
आइ परोसिन ले चली, दीयो दिया सम्हार॥
सदगुरू सरन न आवही, फ़िरि फ़िरि होय अकाज।
जीव खोय सब जायेंगे, काल तिहूपुर राज॥
सतगुरू तो सतभाव है, जो अस भेद बताय।
धन्य सीष धन्य भाग तिहि, जो ऐसी सुधि पाय॥
सदगुरू हमसों रीझि कै, कह्यो एक परसंग।
बरषै बादल प्रेम को, भीजि गया सब अंग॥
हरी भई सब आतमा, सब्द उठै गहराय।
डोरी लागी सब्द की, ले निज घर कूं जाय॥
हरी भई सब आतमा, सतगुरू सेव्या मूल।
चहुंदिस फ़ूटी वासना, भया कली सों फ़ूल॥
सदगुरू के भुज दोय हैं, गोविंद के भुज चार।
गोविंद से कछु ना सरै, गुरू उतारै पार॥
सदगुरू की दाया भई, उपजा सहज सुभाव।
ब्रह्म अगनि परजालिया, अब कछु कहा न जाय॥
कबीर कहता जात हूँ, सुणता है सब कोइ।
राम कहें भला होइगा, नहिं तर भला न होइ॥
कबीर कहै मैं कथि गया, कथि गया ब्रह्म महेस।
राम नाँव सतसार है, सब काहू उपदेस॥
तत तिलक तिहूँ लोक मैं, राम नाँव निज सार।
जब कबीर मस्तक दिया सोभा अधिक अपार॥
भगति भजन हरि नाँव है, दूजा दुक्ख अपार।
मनसा बचा क्रमनाँ, कबीर सुमिरण सार॥
कबीर सुमिरण सार है, और सकल जंजाल।
आदि अंति सब सोधिया दूजा देखौं काल॥
+

एक टिप्पणी भेजें