पांहण केरा पूतला करि पूजै करतार मीनिंग Pahan Kera Putala Meaning Kabir Dohe, Kabir Ke Dohe (Saakhi) Hindi Arth/Hindi Meaning Sahit (कबीर दास जी के दोहे सरल हिंदी मीनिंग/अर्थ में )
पांहण केरा पूतला, करि पूजै करतार।
इही भरोसै जे रहे, ते बूड़े काली धार॥
Pahan Kera Putala, kari Puje Kartar,
Ehi Bharose Je Rah, Te Bude Kali Dhara.
इही भरोसै जे रहे, ते बूड़े काली धार॥
Pahan Kera Putala, kari Puje Kartar,
Ehi Bharose Je Rah, Te Bude Kali Dhara.
पांहण केरा पूतला : पत्थर का पुतला.
करि पूजै करतार : इश्वर समझ कर इसकी पूजा करते हैं.
इही भरोसै जे रहे : इनके ही भरोसे जो रहता है.
ते बूड़े काली धार : वह काल की धारा में डूब जाता है.
करि पूजै करतार : इश्वर समझ कर इसकी पूजा करते हैं.
इही भरोसै जे रहे : इनके ही भरोसे जो रहता है.
ते बूड़े काली धार : वह काल की धारा में डूब जाता है.
पत्थर को जो इश्वर समझते हैं, पत्थर के पुतले को जो लोग इश्वर समझते हैं, पत्थर के पुतले को इश्वर समझ कर उसकी पूजा करते हैं उनके ऊपर कबीर साहेब की वाणी है की जो पत्थर की पूजा करते हैं, पत्थर को ही इश्वर समझ लेते हैं वे यदि इसी भरोसे पर रहे तो अवश्य की काल की धारा में बह जाते हैं.
प्रस्तुत साखी में मूर्तिपूजा का खंडन किया है, मूर्तिपूजा एक तरह का पाखंड है जिससे व्यक्ति को भक्ति प्राप्त नहीं होनी चाहिए. मुक्ति तो सच्ची भक्ति से ही प्राप्त की जा सकती है. सच्ची भक्ति से साहेब का आशय है की तमाम तरह के कर्मकांड का त्याग करके, हृदय से हरी के नाम का सुमिरन ही मुक्ति का मार्ग है. तीर्थ करना, मूर्तिपूजा आदि दिखावे की भक्ति है जिसका वास्तविक भक्ति से कुछ भी लेना देना नहीं है. मूर्तिपूजा से पंडित को भले ही आर्थिक लाभ मिल जाए लेकिन साधक को कोई फायदा नहीं होने वाला है.
प्रस्तुत साखी में मूर्तिपूजा का खंडन किया है, मूर्तिपूजा एक तरह का पाखंड है जिससे व्यक्ति को भक्ति प्राप्त नहीं होनी चाहिए. मुक्ति तो सच्ची भक्ति से ही प्राप्त की जा सकती है. सच्ची भक्ति से साहेब का आशय है की तमाम तरह के कर्मकांड का त्याग करके, हृदय से हरी के नाम का सुमिरन ही मुक्ति का मार्ग है. तीर्थ करना, मूर्तिपूजा आदि दिखावे की भक्ति है जिसका वास्तविक भक्ति से कुछ भी लेना देना नहीं है. मूर्तिपूजा से पंडित को भले ही आर्थिक लाभ मिल जाए लेकिन साधक को कोई फायदा नहीं होने वाला है.
जो व्यक्ति केवल मूर्तिपूजा में ही लगा रहता है वह अवश्य ही काल का भागी बनता है. प्रस्तुत साखी में मूर्तिपूजा की असारता को बताया गया है. साखी में उपमा अलंकारका उपयोग हुआ है.
कबीर दास ने अपने दोहों और कविताओं के माध्यम से मूर्ति पूजा का विरोध किया। उनका मानना था कि जिस भगवान को हम अपनी उंगलियों से छू नहीं सकते, हम उनकी मूर्ति बनाकर उनकी पूजा कैसे कर सकते हैं। मूर्ति पूजा पर उनके कुछ विचार इस प्रकार हैं:
- कबीर दास कहते हैं कि हमें मूर्ति पूजा की बजाय अपने आचरण और आध्यात्मिक ज्ञान पर ध्यान देना चाहिए।
- "पोथी पड़ी पड़ी जग मुआ, पंडित भाया ना कोई। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई।" -कबीर दास का मानना था कि किताबें पढ़ने से प्राप्त ज्ञान पर्याप्त नहीं है। सच्चा ज्ञान परमेश्वर के प्रेम से प्राप्त होता है, जो किसी को भी बुद्धिमान बना सकता है।
- "जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग। तेरा सायी तुझ में है, तू जाग सके तो जाग।" - कबीर दास भगवान और उनके भक्त के बीच के रिश्ते की तुलना तेल और तिल या आग और चकमक के बीच के रिश्ते से करते हैं। उनका मानना है कि ईश्वर हमारे भीतर निवास करते हैं और यदि हम अपनी आध्यात्मिक चेतना को जागृत कर लें तो हम उनकी उपस्थिति का अनुभव कर सकते हैं।
- "जो तो को कहे, दुख होए। जो तो कहे सुख होए।" - कबीर दास कहते हैं कि अगर हम किसी मूर्ति की पूजा करते हैं, तो इससे हमें खुशी मिल भी सकती है और नहीं भी। लेकिन अगर हम अपने भीतर मौजूद ईश्वरीय शक्ति से प्रार्थना करें, तो इससे हमें खुशी जरूर मिलेगी।
- "मन चंगा तो कठौती में गंगा।" - कबीर दास का मानना था कि अनुष्ठान या मूर्ति पूजा करने की तुलना में हृदय की पवित्रता अधिक महत्वपूर्ण है। यदि हमारा मन शुद्ध और सदाचारी है, तो हम सबसे अशुद्ध स्थानों में भी आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।