दृढ इन चरण कैरो भरोसो, दृढ इन चरणन कैरो ।
श्री वल्लभ नख चंद्र छ्टा बिन, सब जग माही अंधेरो ॥
साधन और नही या कलि में, जासों होत निवेरो ॥
सूर कहा कहे, विविध आंधरो, बिना मोल को चेरो ॥
दृढ इन चरण कैरो भरोसो, दृढ इन चरणन कैरो ।
श्री वल्लभ नख चंद्र छ्टा बिन, सब जग माही अंधेरो ॥
साधन और नही या कलि में, जासों होत निवेरो ॥
सूर कहा कहे, विविध आंधरो, बिना मोल को चेरो
Shree Vallabh Nakh Chandr Chhta Bin, Sab Jag Maahee Andhero .
Saadhan Aur Nahee Ya Kali Mein, Jaason Hot Nivero .
Soor Kaha Kahe, Vividh Aandharo, Bina Mol Ko Chero .
Drdh In Charan Kairo Bharoso, Drdh In Charanan Kairo .
Shree Vallabh Nakh Chandr Chhta Bin, Sab Jag Maahee Andhero .
Saadhan Aur Nahee Ya Kali Mein, Jaason Hot Nivero .
Soor Kaha Kahe, Vividh Aandharo, Bina Mol Ko Chero .
श्री वल्लभ नख चंद्र छ्टा बिन, सब जग माही अंधेरो ॥
साधन और नही या कलि में, जासों होत निवेरो ॥
सूर कहा कहे, विविध आंधरो, बिना मोल को चेरो ॥
दृढ इन चरण कैरो भरोसो, दृढ इन चरणन कैरो ।
श्री वल्लभ नख चंद्र छ्टा बिन, सब जग माही अंधेरो ॥
साधन और नही या कलि में, जासों होत निवेरो ॥
सूर कहा कहे, विविध आंधरो, बिना मोल को चेरो
Pushtimargiya Kirtan Karaoke - Ashray Ko Pad - Raag Bihag - दॄढ इन चरणन केरो भरोसो
Drdh In Charan Kairo Bharoso, Drdh In Charanan Kairo .Shree Vallabh Nakh Chandr Chhta Bin, Sab Jag Maahee Andhero .
Saadhan Aur Nahee Ya Kali Mein, Jaason Hot Nivero .
Soor Kaha Kahe, Vividh Aandharo, Bina Mol Ko Chero .
Drdh In Charan Kairo Bharoso, Drdh In Charanan Kairo .
Shree Vallabh Nakh Chandr Chhta Bin, Sab Jag Maahee Andhero .
Saadhan Aur Nahee Ya Kali Mein, Jaason Hot Nivero .
Soor Kaha Kahe, Vividh Aandharo, Bina Mol Ko Chero .
भरोसों द्रढ इन चरनन केरो।1
श्रीवल्लभ नखचंद्र छटा बिन, सब जगमांझि अंधेरो।।2
साधन और नहिं या कलिमें, जासों होत निवेरो।3
"सूर" कहा कहे द्विविध आंधरो, बिना मोलको चेरो।।4
इस पद में कुल 4 पंक्ति हैं जिनका भाव बहुत ही अद्भुद और प्रभावी है। आश्रय के द्वारा ही इन 4 की प्राप्ति होगी इसलिए इस पद को आश्रय का पद के नाम से जाना जाता है।
(१ )भरोसो दृढ़ इन चरणन केरो।
पहली पंक्ति में कुल 13 अक्षर हैऔर पहली पंक्ति का गान करने से अष्टाक्षर(8) व पंचाक्षर(5) मंत्र के सिद्ध होने का फल मिलता है।
(२) श्रीवल्लभ नखचंद्र छटा बिन, सब जगमांझि अंधेरो।।
दूसरी पंक्ति में कुल 21 अक्षर है। दूसरी पंक्ति का गान करने से 10 प्रकार के जीवों की 11 इन्द्रियों का श्री ठाकुरजी के स्वरूप में आसक्ति और विश्वास दृढ़ होता है।
(३) साधन और नहिं या कलिमें, जासों होत निवेरो।
तीसरी पंक्ति में कुल 18 अक्षर हैं तथा इस पंक्ति का गान करने से 18 पुराण, गीताजी के 18 अध्याय व भागवतजी के 18000 श्लोक के फल की प्राप्ति होती है।
(४ ) "सूर" कहा कहे द्विविध आंधरो बिना मोलको चेरो।।
चौथी पंक्ति में कुल 19 अक्षर हैं तथा इसका गान करने से पुष्टि मार्ग के 19 स्वरूप में आसक्ति अधिक दृढ़ होती है। श्री महाप्रभुजी, श्री गोपीनाथजी, श्री पुरषोत्तमलालजी, श्री गुंसाईजी, श्री गुंसाईजी के 7 लालजी, श्रीनाथजी व 7 निधि स्वरूप में एकादश इन्द्रियों द्वारा हमे आसक्ति दृढ़ होवे।
श्रीवल्लभ नखचंद्र छटा बिन, सब जगमांझि अंधेरो।।2
साधन और नहिं या कलिमें, जासों होत निवेरो।3
"सूर" कहा कहे द्विविध आंधरो, बिना मोलको चेरो।।4
इस पद में कुल 4 पंक्ति हैं जिनका भाव बहुत ही अद्भुद और प्रभावी है। आश्रय के द्वारा ही इन 4 की प्राप्ति होगी इसलिए इस पद को आश्रय का पद के नाम से जाना जाता है।
(१ )भरोसो दृढ़ इन चरणन केरो।
पहली पंक्ति में कुल 13 अक्षर हैऔर पहली पंक्ति का गान करने से अष्टाक्षर(8) व पंचाक्षर(5) मंत्र के सिद्ध होने का फल मिलता है।
(२) श्रीवल्लभ नखचंद्र छटा बिन, सब जगमांझि अंधेरो।।
दूसरी पंक्ति में कुल 21 अक्षर है। दूसरी पंक्ति का गान करने से 10 प्रकार के जीवों की 11 इन्द्रियों का श्री ठाकुरजी के स्वरूप में आसक्ति और विश्वास दृढ़ होता है।
(३) साधन और नहिं या कलिमें, जासों होत निवेरो।
तीसरी पंक्ति में कुल 18 अक्षर हैं तथा इस पंक्ति का गान करने से 18 पुराण, गीताजी के 18 अध्याय व भागवतजी के 18000 श्लोक के फल की प्राप्ति होती है।
(४ ) "सूर" कहा कहे द्विविध आंधरो बिना मोलको चेरो।।
चौथी पंक्ति में कुल 19 अक्षर हैं तथा इसका गान करने से पुष्टि मार्ग के 19 स्वरूप में आसक्ति अधिक दृढ़ होती है। श्री महाप्रभुजी, श्री गोपीनाथजी, श्री पुरषोत्तमलालजी, श्री गुंसाईजी, श्री गुंसाईजी के 7 लालजी, श्रीनाथजी व 7 निधि स्वरूप में एकादश इन्द्रियों द्वारा हमे आसक्ति दृढ़ होवे।
आदि सनातन, हरि अबिनासी । सदा निरंतर घठ घट बासी ॥
पूरन ब्रह्म, पुरान बखानैं । चतुरानन, सिव अंत न जानैं ॥
गुन-गन अगम, निगम नहिं पावै । ताहि जसोदा गोद खिलावै ॥
एक निरंतर ध्यावै ज्ञानी । पुरुष पुरातन सो निर्बानी ॥
जप-तप-संजम ध्यान न आवै । सोई नंद कैं आँगन धावै ॥
लोचन-स्रवन न रसना-नासा । बिनु पद-पानि करै परगासा ॥
बिस्वंभर निज नाम कहावै । घर-घर गोरस सोइ चुरावै ॥
सुक-सारद- से करत बिचारा । नारद-से पावहिं नहिं पारा ॥
अबरन-बरन सुरनि नहिं धारै । गोपिन के सो बदन निहारै ॥
जरा-मरन तैं रहित, अमाया । मातु-पिता, सुत, बंधु न जाया ॥
ज्ञान-रूप हिरदै मैं बोलै । सो बछरनि के पाछैं डोलै ॥
जल, धर, अनिल, अनल, नभ, छाया । पंचतत्त्व तैं जग उपजाया ॥
माया प्रगटि सकल जग मोहै । कारन-करन करै सो सोहै ॥
सिव-समाधि जिहि अंत न पावै । सोइ गोप की गाइ चरावै ॥
अच्युत रहै सदा जल-साई । परमानंद परम सुखदाई ॥
लोक रचे राखैं अरु मारे । सो ग्वालनि सँग लीला धारै ॥
काल डरै जाकैं डर भारी । सो ऊखल बाँध्यौ महतारी ॥
गुन अतीत, अबिगत, न जनावै । जस अपार, स्रुति पार न पावै ॥
जाकी महिमा कहत न आवै । सो गोपिन सँग रास रचावै ॥
जाकी माया लखै न कोई । निर्गुन-सगुन धरै बपु सोई ॥
चौदह भुवन पलक मैं टारै । सो बन-बीथिन कुटी सँवारै ॥
चरन-कमल नित रमा पलौवै । चाहति नैंकु नैन भरि जोवै ॥
अगम, अगोचर, लीला-धारी । सो राधा-बस कुंज-बिहारी ॥
बड़भागी वै सब ब्रजबासी । जिन कै सँग खेलैं अबिनासी ॥
जो रस ब्रह्मादिक नहिं पावैं । सो रस गोकुल-गलिनि बहावैं ॥
सूर सुजस ब्रह्मादिक नहिं पावैं । सो रस गोकुल-गलिनि बहावैं ॥
सूर सुजस कहि कहा बखानै । गोबिंद की गति गोबिंद जानै ॥
पूरन ब्रह्म, पुरान बखानैं । चतुरानन, सिव अंत न जानैं ॥
गुन-गन अगम, निगम नहिं पावै । ताहि जसोदा गोद खिलावै ॥
एक निरंतर ध्यावै ज्ञानी । पुरुष पुरातन सो निर्बानी ॥
जप-तप-संजम ध्यान न आवै । सोई नंद कैं आँगन धावै ॥
लोचन-स्रवन न रसना-नासा । बिनु पद-पानि करै परगासा ॥
बिस्वंभर निज नाम कहावै । घर-घर गोरस सोइ चुरावै ॥
सुक-सारद- से करत बिचारा । नारद-से पावहिं नहिं पारा ॥
अबरन-बरन सुरनि नहिं धारै । गोपिन के सो बदन निहारै ॥
जरा-मरन तैं रहित, अमाया । मातु-पिता, सुत, बंधु न जाया ॥
ज्ञान-रूप हिरदै मैं बोलै । सो बछरनि के पाछैं डोलै ॥
जल, धर, अनिल, अनल, नभ, छाया । पंचतत्त्व तैं जग उपजाया ॥
माया प्रगटि सकल जग मोहै । कारन-करन करै सो सोहै ॥
सिव-समाधि जिहि अंत न पावै । सोइ गोप की गाइ चरावै ॥
अच्युत रहै सदा जल-साई । परमानंद परम सुखदाई ॥
लोक रचे राखैं अरु मारे । सो ग्वालनि सँग लीला धारै ॥
काल डरै जाकैं डर भारी । सो ऊखल बाँध्यौ महतारी ॥
गुन अतीत, अबिगत, न जनावै । जस अपार, स्रुति पार न पावै ॥
जाकी महिमा कहत न आवै । सो गोपिन सँग रास रचावै ॥
जाकी माया लखै न कोई । निर्गुन-सगुन धरै बपु सोई ॥
चौदह भुवन पलक मैं टारै । सो बन-बीथिन कुटी सँवारै ॥
चरन-कमल नित रमा पलौवै । चाहति नैंकु नैन भरि जोवै ॥
अगम, अगोचर, लीला-धारी । सो राधा-बस कुंज-बिहारी ॥
बड़भागी वै सब ब्रजबासी । जिन कै सँग खेलैं अबिनासी ॥
जो रस ब्रह्मादिक नहिं पावैं । सो रस गोकुल-गलिनि बहावैं ॥
सूर सुजस ब्रह्मादिक नहिं पावैं । सो रस गोकुल-गलिनि बहावैं ॥
सूर सुजस कहि कहा बखानै । गोबिंद की गति गोबिंद जानै ॥
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