आजु लखि ललिहिं गई बलिहार

आजु लखि ललिहिं गई बलिहार


आजु लखि ललिहिं गई बलिहार।
सिंहासन-आसीन ललिहिं पग, चापत नंदकुमार॥
विधि, हरि, हर — सब कहत एक स्वर, “जय श्री भानुदुलार।”
अनुपमेय छवि, सीम-माधुरी — शोभा सिंधु अपार॥

सकल सुवासि-सुगंधित जल सों, मज्जन करि रिझवार।
उर कंचुकी, परिधान नील-पट, चूनरि लिय सिर धार॥
किए अर्गजा-लेप गौर तनु, तेल फुलेलन बार।
भरी माँग सिंदूर-अलंकृत, बिंदी इंदु ललाट।

कजरारे दृग, काजर राजत, सुरमा सुघर सँवार।
राग-अरुणिमा अधर-कपोलनि, रदन पान अरुणार॥
चिबुक एक तिल, इत्र-सुगंधित, विविध अंग बहु हार।
अंग-अंग आभूषण भूषित, दोउ कर मेहँदी सार॥

चरण मेहावरि अरुण, सखी! इमि किय सोरह श्रृंगार।
सोइ 'कृपालु' लखि सकै कृपा करि, जेहि चितवति सुकुमार॥


आजु लखि, ललिहिं गई बलिहार।

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Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

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