यह तन विष की बेलरी गुरु अमृत की खान मीनिंग Yah Tan Vish Ki Belari Meaning

यह तन विष की बेलरी गुरु अमृत की खान मीनिंग Yah Tan Vish Ki Belari Meaning

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान,
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।

Yah Tan Vish Ki Belari, Guru Amrit Ki Khan,
Sheesh Diyo Jo Guru Mile, To Bhi Sasta Jaan.
 
यह तन विष की बेलरी गुरु अमृत की खान मीनिंग Yah Tan Vish Ki Belari Meaning
 

यह तन विष की बेलरी कबीर दोहे शब्दार्थ Kabir Doha Hindi Shabdarth

  1. यह तन : शरीर, देह, मानव तन।
  2. विष : विषय विकार, माया।
  3. की बेलरी : बेल है / घर है।
  4. गुरु : सद्गुरु।
  5. अमृत : ज्ञान।
  6. की खान : भण्डार।
  7. शीश : मस्तक।
  8. दियो : देने से।
  9. जो गुरु मिले : यदि गुरु की प्राप्ति होती है थो।
  10. तो भी सस्ता जान : तो भी इसे सस्ता मानों।
अर्थ / भावार्थ : कबीर जी ने अपनी दोहे में शिष्य की तुलना विष की बेल से की और गुरु को अमृत की खान के समान बताया है। उन्होंने यह सन्देश दिया है कि गुरु का ज्ञान और उनकी महिमा इतनी अद्भुत और अनमोल है कि शिष्य के लिए उनके द्वारा प्राप्त किया गया आशीर्वाद अत्यंत मूल्यवान होता है। यदि शीश/मस्तक देकर भी गुरु का सानिध्य प्राप्त होता है तो, शीश देकर गुरु के ज्ञान को ग्रहण कर लेना चाहिए। 

मानव देह विभिन्न विषय प्रकार के विषय वासना और विकारों से भरे पड़े हैं । काम, क्रोध, लालच, इर्ष्या और मद जैसे विकार आदि सभी विषय और विकार हैं जो जीव को ईश्वर प्राप्ति मार्ग से विमुख करते हैं और उसके अमूल्य जीवन को व्यर्थ ही गँवा देते हैं । गुरु अमृत की खान, उत्पत्ति का द्वार है जो जीव को वस्तु स्थिति का ज्ञान करवाता है और उसे सद्मार्ग की और अग्रसर करता है । सद्मार्ग का ज्ञान होना बहुत जरुरी है क्योंकि बगैर सद्मार्ग के व्यक्ति को ज्ञान ही नहीं होता है की उसके जीवन का उद्देश्य क्या है, उसे जीवन में क्या करना है और उसका आखरी घर कौनसा है । 
 
मानव शरीर में विष, अवगुणों से भरा हुआ है, जबकि गुरु ज्ञान अमृत की खान है। अगर हमारा शीश (सर) देकर गुरु ज्ञान की प्राप्ति हो सकती हो तो ऐसा कर लेना चाहिए। गुरु और गुरु ज्ञान की महिमा अनंत है। अतः इस दोहे में कबीर साहेब ने गुरु की सर्वोच्चता को घोषित किया है। 

यह ज्ञान गुरु देता है इसलिए ही गुरु गोविन्द से भी बड़ा बताया गया है । जीव को ईश्वर का सुमिरण करना और नेक और सद्मार्ग का अनुसरण करते हुए भव सागर से पार जाना है । ऐसा ज्ञान देने वाला गुरु यदि शीश देने के उपरान्त भी यदि मिल जाए तो उसे सस्ता ही जानना चाहिए । प्राचीन समय में गुरु और आश्रम की व्यवस्था ही सर्वमान्य रही और इसी लिए गुरु का स्थान सबसे ऊँचा रखा गया था । उस समय के गुरु भी 'वास्तविक गुरु' हुआ करते थे जिनका अनुसरण पूरा समाज किया करता था । वर्तमान में समाज की दुर्दशा का कारण भी यही है की गुरुओं का अभाव सा हो गया है जिसके कारण से वर्तमान में जिस समाज में हम रह रहे हैं वो किसी से छुपा हुआ नहीं है।
 
साहेब का सन्देश है कि हमारे शरीर तामाम तरह की बुराइयों का घर है। जैसे बेल बढती ही जाती है वैसे ही इसमें विष/विषय और विकार बढ़ते हैं। इसके विरुद्ध गुरु अमृत की खान है। अमृत से आशय गुरु ज्ञान से है जो इस विष को समाप्त कर देता है। यदि हम अपने शीश (सर) को देकर भी गुरु ज्ञान को प्राप्त कर लें तो भी यह सौदा सस्ता है। अतः इस दोहे में साहेब ने गुरु और गुरु ज्ञान को अमृत तुल्य घोषित करते हुए हर स्थिति में इसे ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया है। 
 
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कबीर साहेब गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हमारे शरीर में अज्ञानता और अनेक दोष, बुराइयों रूपी विष है, जो हमें हमें इश्वर से विमुख करते हैं। हमारा शरीर पांच तत्वों (पृथ्वी, वायु, आकाश, अग्नि और जल) से मिलकर बना हुआ है और मृत्यु के बाद यह शरीर उन तत्वों में लीन हो जाता है। इसके बाद यह शरीर कोई महत्व नहीं रखता है।

इसके विपरीत, गुरु का महत्व अत्यंत महत्वपूर्ण होता है, जैसे कि कोई अमृत हो। गुरु के पास अनगिनत ज्ञान होता है, जो हमें बुराइयों से मुक्ति पाने और जीवन का उद्देश्य समझाने में उपयोगी होता है। अगर हम अपने शीश (सर) देकर गुरु ज्ञान ग्रहण करते हैं तो यह सौदा महंगा नहीं है। 

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