
भोले तेरी भक्ति का अपना ही
कबीर साहेब ने इस दोहे में सेवक और स्वामी के विषय में बताते हुए वाणी दी है की भक्त का अपने ईश्वर से एकाकार होना चाहिए जैसे की सेवक और स्वामी का होता है। उन दोनों का मत मिलकर एक मत हो जाता है, दोयम का भाव समाप्त हो जाता है। चतुराई से या चालाकी से ईश्वर को राजी कर पाना, प्रसन्न कर पाना संभव नहीं है। यह तो भक्ति से ही सम्भव हो पाता है।
आपको ये पोस्ट पसंद आ सकती हैं
![]() |
Author - Saroj Jangir
दैनिक रोचक विषयों पर में 20 वर्षों के अनुभव के साथ, मैं कबीर के दोहों को अर्थ सहित, कबीर भजन, आदि को सांझा करती हूँ, मेरे इस ब्लॉग पर। मेरे लेखों का उद्देश्य सामान्य जानकारियों को पाठकों तक पहुंचाना है। मैंने अपने करियर में कई विषयों पर गहन शोध और लेखन किया है, जिनमें जीवन शैली और सकारात्मक सोच के साथ वास्तु भी शामिल है....अधिक पढ़ें। |