ध्येयं सदा परिभवघ्नमिष्टदोहं जानिये अर्थ और महत्त्व
ध्येयं सदा परिभवघ्नमिष्टदोहं जानिये अर्थ और महत्त्व
ध्येयं सदा परिभवघ्नमिष्टदोहं
तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम्।
भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं
वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम्॥
यः प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव।
पुत्रेति तनयतया तरवोऽभिनेदुस्तं
सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि॥
वर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं
विभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्।
रन्ध्रान्वेनोः सुदया पूरयन्गोपवृन्दैः
वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्रविशद्गीतकीर्तिः॥
वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्
पीताम्बरादरुणबिंबफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्
कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने॥
कस्तूरीतिलकं ललाटपटले
वक्षःस्थले कौस्तुभं
नासाग्रे नवमौक्तिकं करतले वेणुं करे कङ्कणम्।
सर्वाङ्गे हरिचन्दनं सुललितं कण्ठे च मुक्तावलिं
गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपालचूडामणिः॥
करारविन्देन पदारविन्दं
मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्।
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं
बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि॥
वन्दे विदेहतनया पदपङ्कजं
कैशोरसौरभसमाहितयोगचित्तम्।
हन्तुं त्रितापमनिशं मुनिमानसैस्तं
सम्मानितं विशालभक्तपरागपुञ्जम्॥
सीतानाथसमारम्भां
श्रीरामानन्दार्यमध्यमाम्।
अस्मदाचार्यपर्यन्तां
वन्दे गुरुपरम्पराम्॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य
ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन
तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः
पूजामूलं गुरोः पदम्।
मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं
मोक्षमूलं गुरोः कृपा॥
कृष्णं नारायणं वन्दे
कृष्णं वन्दे व्रजप्रियम्।
कृष्णं द्वैपायनं वन्दे
कृष्णं वन्दे पृथासुतम्॥
नारायणं नमस्कृत्य
नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं
ततो जयमुदीरयेत्॥
तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम्।
भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं
वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम्॥
यः प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव।
पुत्रेति तनयतया तरवोऽभिनेदुस्तं
सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि॥
वर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं
विभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्।
रन्ध्रान्वेनोः सुदया पूरयन्गोपवृन्दैः
वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्रविशद्गीतकीर्तिः॥
वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्
पीताम्बरादरुणबिंबफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्
कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने॥
कस्तूरीतिलकं ललाटपटले
वक्षःस्थले कौस्तुभं
नासाग्रे नवमौक्तिकं करतले वेणुं करे कङ्कणम्।
सर्वाङ्गे हरिचन्दनं सुललितं कण्ठे च मुक्तावलिं
गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपालचूडामणिः॥
करारविन्देन पदारविन्दं
मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्।
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं
बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि॥
वन्दे विदेहतनया पदपङ्कजं
कैशोरसौरभसमाहितयोगचित्तम्।
हन्तुं त्रितापमनिशं मुनिमानसैस्तं
सम्मानितं विशालभक्तपरागपुञ्जम्॥
सीतानाथसमारम्भां
श्रीरामानन्दार्यमध्यमाम्।
अस्मदाचार्यपर्यन्तां
वन्दे गुरुपरम्पराम्॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य
ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन
तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः
पूजामूलं गुरोः पदम्।
मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं
मोक्षमूलं गुरोः कृपा॥
कृष्णं नारायणं वन्दे
कृष्णं वन्दे व्रजप्रियम्।
कृष्णं द्वैपायनं वन्दे
कृष्णं वन्दे पृथासुतम्॥
नारायणं नमस्कृत्य
नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं
ततो जयमुदीरयेत्॥
ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम्। भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम्॥
श्रीमद्भागवत महापुराण के एकादश स्कन्ध के पाँचवें अध्याय में मिलता है। इसका अर्थ है: "हम उन महापुरुष के चरणारविन्दों की वंदना करते हैं, जो सदा ध्यान करने योग्य हैं, अपमान को नष्ट करने वाले हैं, इच्छित फल देने वाले हैं, तीर्थों का आधार हैं, शिव और ब्रह्मा द्वारा वंदित हैं, शरणागतों के रक्षक हैं, सेवकों की पीड़ा हरने वाले हैं, शरणागतों की रक्षा करने वाले हैं, और संसार सागर से पार कराने वाली नौका हैं।"
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव। पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि॥
श्लोक श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कन्ध के दूसरे अध्याय में मिलता है। इसका अर्थ है: "मैं उन मुनि (शुकदेव गोस्वामी) को प्रणाम करता हूँ, जो सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हैं। जब वे बिना संस्कार के ही सन्यास लेने चले गए, तो उनके पिता (व्यासदेव) विरह से व्याकुल होकर 'पुत्र' कहकर पुकारने लगे। उस समय, वृक्षों ने भी उनकी पुकार की प्रतिध्वनि की।"
करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्। वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि॥
श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण के बालरूप का वर्णन है: "मैं अपने मन से उस बाल मुकुन्द का स्मरण करता हूँ, जो अपने करकमल से अपने चरणारविन्द को अपने मुखारविन्द में स्थापित कर रहे हैं, और वट वृक्ष के पत्ते पर शयन कर रहे हैं।"
कस्तूरीतिलकं ललाटपटले वक्षःस्थले कौस्तुभं नासाग्रे नवमौक्तिकं करतले वेणुं करे कङ्कणम्। सर्वाङ्गे हरिचन्दनं सुललितं कण्ठे च मुक्तावलिं गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपालचूडामणिः॥
श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण के सौंदर्य का वर्णन है: "जिनके ललाट पर कस्तूरी का तिलक है, वक्षःस्थल पर कौस्तुभ मणि सुशोभित है, नासिका के अग्रभाग में नवीन मोती है, हाथ में बांसुरी और कंगन हैं, समस्त अंगों पर सुगंधित चंदन का लेप है, गले में मोतियों की माला है, और जो गोपियों से घिरे हुए हैं, ऐसे गोपालचूड़ामणि (कृष्ण) की जय हो।"
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
गुरु की महिमा का वर्णन है: "जो अज्ञान के अंधकार से अंधे हुए व्यक्ति की आँखों को ज्ञान के अंजन से खोलते हैं, उन श्रीगुरु को नमस्कार है।"
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्। मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा॥
गुरु की महत्ता का वर्णन है: "ध्यान का मूल गुरु की मूर्ति है, पूजा का मूल गुरु के चरण हैं, मंत्र का मूल गुरु का वचन है, और मोक्ष का मूल गुरु की कृपा है।"
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
महाभारत कथा के प्रारंभ में नारायण, नर, देवी सरस्वती और व्यासजी को नमस्कार करके विजय की कामना की जाती है: "नारायण को नमस्कार करके, नरश्रेष्ठ नर को, देवी सरस्वती को और व्यासजी को नमस्कार करके, फिर जय (विजय) की घोषणा करें।"
श्रीमद्भागवत महापुराण के एकादश स्कन्ध के पाँचवें अध्याय में मिलता है। इसका अर्थ है: "हम उन महापुरुष के चरणारविन्दों की वंदना करते हैं, जो सदा ध्यान करने योग्य हैं, अपमान को नष्ट करने वाले हैं, इच्छित फल देने वाले हैं, तीर्थों का आधार हैं, शिव और ब्रह्मा द्वारा वंदित हैं, शरणागतों के रक्षक हैं, सेवकों की पीड़ा हरने वाले हैं, शरणागतों की रक्षा करने वाले हैं, और संसार सागर से पार कराने वाली नौका हैं।"
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव। पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि॥
श्लोक श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कन्ध के दूसरे अध्याय में मिलता है। इसका अर्थ है: "मैं उन मुनि (शुकदेव गोस्वामी) को प्रणाम करता हूँ, जो सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हैं। जब वे बिना संस्कार के ही सन्यास लेने चले गए, तो उनके पिता (व्यासदेव) विरह से व्याकुल होकर 'पुत्र' कहकर पुकारने लगे। उस समय, वृक्षों ने भी उनकी पुकार की प्रतिध्वनि की।"
करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्। वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि॥
श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण के बालरूप का वर्णन है: "मैं अपने मन से उस बाल मुकुन्द का स्मरण करता हूँ, जो अपने करकमल से अपने चरणारविन्द को अपने मुखारविन्द में स्थापित कर रहे हैं, और वट वृक्ष के पत्ते पर शयन कर रहे हैं।"
कस्तूरीतिलकं ललाटपटले वक्षःस्थले कौस्तुभं नासाग्रे नवमौक्तिकं करतले वेणुं करे कङ्कणम्। सर्वाङ्गे हरिचन्दनं सुललितं कण्ठे च मुक्तावलिं गोपस्त्रीपरिवेष्टितो विजयते गोपालचूडामणिः॥
श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण के सौंदर्य का वर्णन है: "जिनके ललाट पर कस्तूरी का तिलक है, वक्षःस्थल पर कौस्तुभ मणि सुशोभित है, नासिका के अग्रभाग में नवीन मोती है, हाथ में बांसुरी और कंगन हैं, समस्त अंगों पर सुगंधित चंदन का लेप है, गले में मोतियों की माला है, और जो गोपियों से घिरे हुए हैं, ऐसे गोपालचूड़ामणि (कृष्ण) की जय हो।"
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
गुरु की महिमा का वर्णन है: "जो अज्ञान के अंधकार से अंधे हुए व्यक्ति की आँखों को ज्ञान के अंजन से खोलते हैं, उन श्रीगुरु को नमस्कार है।"
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्। मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा॥
गुरु की महत्ता का वर्णन है: "ध्यान का मूल गुरु की मूर्ति है, पूजा का मूल गुरु के चरण हैं, मंत्र का मूल गुरु का वचन है, और मोक्ष का मूल गुरु की कृपा है।"
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥
महाभारत कथा के प्रारंभ में नारायण, नर, देवी सरस्वती और व्यासजी को नमस्कार करके विजय की कामना की जाती है: "नारायण को नमस्कार करके, नरश्रेष्ठ नर को, देवी सरस्वती को और व्यासजी को नमस्कार करके, फिर जय (विजय) की घोषणा करें।"
ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम् - Dr. #Shyamsundar Parashar Ji
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Author - Saroj Jangir
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