ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम्। भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम्॥
श्रीमद्भागवत महापुराण के एकादश स्कन्ध के पाँचवें अध्याय में मिलता है। इसका अर्थ है: "हम उन महापुरुष के चरणारविन्दों की वंदना करते हैं, जो सदा ध्यान करने योग्य हैं, अपमान को नष्ट करने वाले हैं, इच्छित फल देने वाले हैं, तीर्थों का आधार हैं, शिव और ब्रह्मा द्वारा वंदित हैं, शरणागतों के रक्षक हैं, सेवकों की पीड़ा हरने वाले हैं, शरणागतों की रक्षा करने वाले हैं, और संसार सागर से पार कराने वाली नौका हैं।"
श्लोक श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कन्ध के दूसरे अध्याय में मिलता है। इसका अर्थ है: "मैं उन मुनि (शुकदेव गोस्वामी) को प्रणाम करता हूँ, जो सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हैं। जब वे बिना संस्कार के ही सन्यास लेने चले गए, तो उनके पिता (व्यासदेव) विरह से व्याकुल होकर 'पुत्र' कहकर पुकारने लगे। उस समय, वृक्षों ने भी उनकी पुकार की प्रतिध्वनि की।"
श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण के बालरूप का वर्णन है: "मैं अपने मन से उस बाल मुकुन्द का स्मरण करता हूँ, जो अपने करकमल से अपने चरणारविन्द को अपने मुखारविन्द में स्थापित कर रहे हैं, और वट वृक्ष के पत्ते पर शयन कर रहे हैं।"
श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण के सौंदर्य का वर्णन है: "जिनके ललाट पर कस्तूरी का तिलक है, वक्षःस्थल पर कौस्तुभ मणि सुशोभित है, नासिका के अग्रभाग में नवीन मोती है, हाथ में बांसुरी और कंगन हैं, समस्त अंगों पर सुगंधित चंदन का लेप है, गले में मोतियों की माला है, और जो गोपियों से घिरे हुए हैं, ऐसे गोपालचूड़ामणि (कृष्ण) की जय हो।"
गुरु की महत्ता का वर्णन है: "ध्यान का मूल गुरु की मूर्ति है, पूजा का मूल गुरु के चरण हैं, मंत्र का मूल गुरु का वचन है, और मोक्ष का मूल गुरु की कृपा है।"
महाभारत कथा के प्रारंभ में नारायण, नर, देवी सरस्वती और व्यासजी को नमस्कार करके विजय की कामना की जाती है: "नारायण को नमस्कार करके, नरश्रेष्ठ नर को, देवी सरस्वती को और व्यासजी को नमस्कार करके, फिर जय (विजय) की घोषणा करें।"
ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं तीर्थास्पदं शिवविरिञ्चिनुतं शरण्यम् - Dr. #Shyamsundar Parashar Ji
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