अयोध्या काण्ड-22 Tulsi Das Ram Charit Mans Hindi Ayodhya Kand in Hindi तुलसी दास राम चरित मानस अयोध्या काण्ड

 राम चरित मानस अयोध्या काण्ड तुलसीदास | राम चरित मानस हिंदी में  raam charit maanas ayodhya kaand 

 सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा।।
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन।।

करत प्रबेस मिटे दुख दावा। जनु जोगीं परमारथु पावा।।
देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे।।
सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें। तून कसें कर सरु धनु काँधें।।
बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू।।
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनि बेष कीन्ह रति कामा।।
कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत।।
दो0-लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु।
ग्यान सभाँ जनु तनु धरे भगति सच्चिदानंदु।।239।।
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सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन।।
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाई। भूतल परे लकुट की नाई।।
बचन सपेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने।।
बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा।।
मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई।।
रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू।।
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा।।
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा।।
दो0-बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान।।240।।
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मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी।।
परम पेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई।।
कहहु सुपेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई।।
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा।।
अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को।।
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती। बाज सुराग कि गाँडर ताँती।।
मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी।।
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे।।
दो0-मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम।
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम।।241।।
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भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई।।
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे।।
सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा।।
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए।।
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं। मगन सनेहँ देह सुधि नाहीं।।
सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता।।
कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा।।
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि।।
दो0-नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग।।242।।
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सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू।।
चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला।।
गुरहि देखि सानुज अनुरागे। दंड प्रनाम करन प्रभु लागे।।
मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई।।
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू।।
रामसखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा।।
रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला।।
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं।।
दो0-जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ।
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ।।243।।
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आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना।।
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी।।
सानुज मिलि पल महु सब काहू। कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू।।
यह बड़ि बातँ राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं।।
मिलि केवटिहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा।।
देखीं राम दुखित महतारीं। जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं।।
प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायँ भगति मति भेई।।
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी।।
दो0-भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु।।
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु।।244।।
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गुरतिय पद बंदे दुहु भाई। सहित बिप्रतिय जे सँग आई।।
गंग गौरि सम सब सनमानीं।।देहिं असीस मुदित मृदु बानी।।
गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेटीं संपति अति रंका।।
पुनि जननि चरननि दोउ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता।।
अति अनुराग अंब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए।।
तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू।।
मिलि जननहि सानुज रघुराऊ। गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ।।
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू।।
दो0-महिसुर मंत्री मातु गुर गने लोग लिए साथ।।
पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ।।245।।
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सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी।।
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता।।
बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के।।
सासु सकल जब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीं।।
परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचालीं।।
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा।।
जनकसुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा।।
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई।।
दो0-लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग।।
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग।।246।।
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बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं।।
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा। कहे कछुक परमारथ गाथा।।
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा।।
मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी।।
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी।।
सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहुँ राजु अकाजेउ आजू।।
मुनिबर बहुरि राम समुझाए। सहित समाज सुसरित नहाए।।
ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा।।
दो0-भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह।।
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह।।247।।
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करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी।।
जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला।।
सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस।।
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते।।
नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी।।
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता।।
सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ।।
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई।।
दो0-धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम।
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम।।248।।
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राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू।।
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकुला।।
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अंघ ओघ नसाहीं।।
मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि।।
राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं।।
झरना झरिहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी।।
बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती।।
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं।।
दो0-सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग।।249।।
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कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी।।
भरि भरि परन पुटीं रचि रुरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी।।
सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा।।
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं।।
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी।।
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा।।
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा।।
राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा।।
दो0-यह जिँयँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु।
हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु।।250।।
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तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे।।
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईधनु पात किरात मिताई।।
यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहि न बासन बसन चोराई।।
हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती।।
पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहि पेट अघाहीं।।
सपोनेहुँ धरम बुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ।।
जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे।।
बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे।।
छं0-लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं।
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं।।
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा।।
सो0-बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब।
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम।।251।।
पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती।।
सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई।।
लखा न मरमु राम बिनु काहूँ। माया सब सिय माया माहूँ।।
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं।।
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अघाई।।
अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई।।
लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख थलु नरक न लहहीं।।
यहु संसउ सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं।।
दो0-निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच।
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच।।252।।
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कीन्ही मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली।।
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू।।
अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी।।
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ। राम जननि हठ करबि कि काऊ।।
मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता।।
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू।।
एकउ जुगुति न मन ठहरानी। सोचत भरतहि रैनि बिहानी।।
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठए रिषयँ बोलाई।।
दो0-गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ।
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ।।253।।
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बोले मुनिबरु समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना।।
धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू।।
सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतू।।
गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी।।
नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु।।
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला।।
अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई।।
करि बिचार जिँयँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सबही कें।।
दो0-राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ।
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ।।254।।
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सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू।।
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ।।
सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी।।
उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे।।
भानुबंस भए भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बड़ेरे।।
जनमु हेतु सब कहँ पितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता।।
दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस असीस राउरि जगु जाना।।
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी।।
दो0-बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु।
सुनि सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु।।255।।
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तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं।।
सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता।।
तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई। फेरिअहिं लखन सीय रघुराई।।
सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भे प्रमोद परिपूरन गाता।।
मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा। जनु जिय राउ रामु भए राजा।।
बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी।।
कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे। फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे।।
कानन करउँ जनम भरि बासू। एहिं तें अधिक न मोर सुपासू।।
दो0-अँतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान।
जो फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान।।256।।
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भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भए बिदेहू।।
भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी।।
गा चह पार जतनु हियँ हेरा। पावति नाव न बोहितु बेरा।।
औरु करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिंधु समाई।।
भरतु मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहिँ आए।।
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु।।
बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी।।
सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना।।
दो0-सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ।।257।।
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