जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिये ज्ञान मीनिंग
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥
Jaati Na Poochho Saadhu Kee, Poochh Leejiye Gyaan.
Mol Karo Talavaar Ka, Pada Rahan Do Myaan
जाति न पूछो साधु की शब्दार्थ हिंदी में
जाति : मज़हबمذہب Cast/Religion साधु की : ज्ञानी گیانی A sage, a wiseman, philosopher ज्ञान: understanding, knowledge, intelligence, wisdom گیان मोल करो : price, value, cost, worth قیمت म्यान: sheath(a close-fitting cover for the blade of a knife or sword) दोहे का हिंदी मीनिंग: धार्मिक आडंबरों के साथ ही कबीर साहेब के समय की एक विडंबना रही हिन्दू धर्म जातिगत संघर्ष का भी शिकार था। लोग एक जाति विशेष के संत / गुरु और तपस्वी को जन्मजात मान्यता देते थे जिसका कबीर साहेब ने तीखा विरोध किया और जातिगत और जन्म आधार पर किसी को श्रेष्ठ मानने से स्पष्ट इंकार कर दिया। किसी भी जाति में ज्ञानी हो सकता है, ऊँची जाति से सबंध रखने वाला कोई भी व्यक्ति भ्रष्ट हो सकता है। कबीर साहेब जब लोगों को समझाते थे तो कुछ लोग यह प्रचार करते थे की यह (कबीर) इस आधार पर ज्ञान बाँट सकता है ? यह तो खुद ही निर्गुणी है और इसका कोई गुरु भी नहीं है। इसी के चलते कबीर साहेब को भी रामानंद को अपना गुरु बनाना पड़ा।
वर्तमान में भी कुछ लोग भगवा धारण कर लेते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवचन देने को अपना 'जॉब' बना लिया है जो कहाँ तक उचित है आप स्वंय ही इसका निर्णय करें। इसी क्रम में कबीर साहेब का यह दोहा है जिसका मूल भाव है की कोई व्यक्ति किस जाति/सम्प्रदाय और क्षेत्र का इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या वह ग्यानी है ? यह काम की बात है। जैसे मोल तलवार का किया जाता है की वे कितनी धारधार और कीमती है / टिकाऊ है, उसकी म्यान का कोई विशेष मूल्य नहीं होता है, वैसे ही गुरु के ज्ञान की कीमत होनी चाहिए ना की गुरु की जाति और सम्प्रदाय की।
देखिये, कबीर साहेब ने जातिवाद को झेला था, भले ही वो पारिवारिक हो / सामाजिक हो सभी को। भारतीय समाज में ये जातिवाद बहुत गहराई से घर किये हुए है। बहुत से लेखों से ज्ञात होता है की कबीर साहेब को समाज ने प्रथम द्रष्टि से नकार दिया था और उनकी झोपड़ी गाँव के बाहर बना दी थी।
स्वामी कृष्णानंद जी महाराज के द्वारा रचित कबीर बीजक की व्याख्या में वर्णित है की कबीर साहेब की झौपडी वेश्याओं और कसाइयों के पास थी जो की समाज में कोई सम्मानजनक स्थान नहीं रखते थे। एक बार सुमंत नाम के पंडा ने, जिसकी दोस्ती वेश्याओं से थी, कबीर साहेब की झोपड़ी को ही आग के हवाले कर दिया क्योंकि वेश्याओं ने शिकायत की थी कबीर साहेब उनके धंधे के वक़्त भजन शुरू कर देते हैं। बहरहाल बात है की कबीर साहेब ने भी जातिवाद का दंश अवश्य ही झेला है। दूसरी और मुसलमानों के धर्म में व्याप्त आडम्बरों का विरोध करने पर कबीर साहेब उनके भी निशाने पर थे।
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