जो गुरु बसै बनारसी शीष समुन्दर तीर मीनिंग
जो गुरु बसै बनारसी शीष समुन्दर तीर हिंदी मीनिंग
जो गुरु बसै बनारसी शीष समुन्दर तीर।
एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शरीर॥
एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शरीर॥
Jo Guru Basai Banaarasee Sheesh Samundar Teer.
Ek Palak Bikhare Nahin, Jo Gun Hoy Shareer.
Ek Palak Bikhare Nahin, Jo Gun Hoy Shareer.
दोहे का हिंदी मीनिंग: यदि शिष्य ने अपने गुरु के बताये मार्ग का अनुसरण किया है, तो भले ही गुरु वाराणसी में हो और शिष्य किसी समुद्र के तीर (किनारे) पर हो, वह एक पल भी अपने गुरु को / गुरु के बताये मार्ग को नहीं भूलेगा। यह जरुरी नहीं की जो शिष्य गुरु के पास ही रहे वही गुरु को याद करता है / नेक राह का अनुसरण करता हो, यदि शिष्य ने गुरु के बताये मार्ग का हृदय से अनुसरण किया है तो उसे हरदम गुरु के सानिध्य की आवश्यकता नहीं है।
आध सब्द गुरूदेव का, ताका अनंत विचार।
थाके मुनिजन पंडिता, वेद न पावै पार॥
करै दूरि अज्ञानता, अंजन ज्ञान सु देय।
बलिहारी वे गुरून की, हंस उबारि जु लेय॥
हरि सेवा युग चार है, गुरू सेवा पल एक।
ताके पटतर ना तुलै, संतन कियो विवेक॥
ते मन निरमल सत खरा, गुरू सों लागे हेत।
अंकुर सोई ऊगसी, सब्दे बोया खेत॥
भौसागर की त्रास ते, गुरू की पकङो बांहि।
गुरू बिन कौन उबारसी, भौजल धारा मांहि॥
लौ लागी विष भागिया, कालख डारी धोय।
कहैं कबीर गुरू साबु(न) सों, कोइ इक ऊजल होय॥
साबु विचारा क्या करै, गांठै राखै मोय।
जल सो अरसा परस नहिं, क्यौं करि ऊजल होय॥
नारद सरिखा सीष है, गुरू है मच्छीमार।
ता गुरू की निन्द करै, पङै चौरासी धार॥
राजा की चोरी करै, रहै रंक की ओट।
कहैं कबीर क्यों ऊबरै, काल कठिन की चोट॥
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आध सब्द गुरूदेव का, ताका अनंत विचार।
थाके मुनिजन पंडिता, वेद न पावै पार॥
करै दूरि अज्ञानता, अंजन ज्ञान सु देय।
बलिहारी वे गुरून की, हंस उबारि जु लेय॥
हरि सेवा युग चार है, गुरू सेवा पल एक।
ताके पटतर ना तुलै, संतन कियो विवेक॥
ते मन निरमल सत खरा, गुरू सों लागे हेत।
अंकुर सोई ऊगसी, सब्दे बोया खेत॥
भौसागर की त्रास ते, गुरू की पकङो बांहि।
गुरू बिन कौन उबारसी, भौजल धारा मांहि॥
लौ लागी विष भागिया, कालख डारी धोय।
कहैं कबीर गुरू साबु(न) सों, कोइ इक ऊजल होय॥
साबु विचारा क्या करै, गांठै राखै मोय।
जल सो अरसा परस नहिं, क्यौं करि ऊजल होय॥
नारद सरिखा सीष है, गुरू है मच्छीमार।
ता गुरू की निन्द करै, पङै चौरासी धार॥
राजा की चोरी करै, रहै रंक की ओट।
कहैं कबीर क्यों ऊबरै, काल कठिन की चोट॥
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