माखी गुड़ में गड़ि रही पंख रही लपटाय हिंदी मीनिंग कबीर के दोहे

माखी गुड़ में गड़ि रही पंख रही लपटाय हिंदी मीनिंग Makhi Gud Me Gadi Rahi Pankh Rahi Laptaay Meaning

माखी गुड़ में गड़ि रही पंख रही लपटाय हिंदी मीनिंग Makhi Gud Me Gadi Rahi Pankh Rahi Laptaay Meaning

माषी गुड़ में गड़ि रही हैं, पंख रही लपटाय।
ताली पीटै सिर धुने, मीठे बोई माइ।
Or
माखी गुड़ में गड़ि रही, पंख रही लपटाय।
तारी पीटै सिर धुनै, लालच बुरी बलाय।
Makhee Gud Mein Gadi Rahee Hain, Pankh Rahee Lapataay.
Taalee Peetai Sir Dhune, Meethe Boee Dooree.
Or
Maakhee Gud Mein Gadi Rahee, Pankh Rahi Lapataay.
Prashansa Peetai Sir Dhunai, Laalach Chamadee Balaay.


दोहे का हिंदी मीनिंग :
कबीर साहेब ने जीवात्मा को मोह और माया से बचने के प्रति आगाह किया है. जीव (जीवात्मा) स्वभाव से सुख चैन और मोह माया के प्रति लोलुप रहता है और उनकी और आकर्षित होता रहता है. जीव अपने सुखो और लालसाओं के प्रति आकर्षित होता है. उदाहरण देते हुए कबीर साहेब की वाणी है की जैसे मक्खी गुड़ पर आकर्षित होती है. एक बार मीठे के चक्कर में फँस जाने पर वह उससे चिपक कर रह जाती है. जब उसे ज्ञान होता है तो वह इसके जाल से निकलने के लिए खूब प्रयत्न करती है. लेकिन वह गुड़ पर ही चिपक कर रह जाती है. मीठे के चक्कर में वह अपनी जान गँवा देती है. ताली पीटना (पंख फडफडाना), सर घुनना (सर पटकना) आदि स्वाभाविक चेस्टाएं हैं जो मक्खी चिपचिपे गुड़ से मुक्त होने के लिए करती है. आखिरकार मक्खी लालच में पड़कर अपने जीवन को ही समाप्त कर लेती है. 

ऐसे ही जीव भी मोह और माया के चक्कर में पड़ा रहता है और अपने अमूल्य जीवन, जो उसे करोड़ों अन्य जीव योनियों के उपरान्त प्राप्त होता है, उसे समाप्त कर लेता है. माया के विषय में कबीर साहेब के विचार स्पष्ट हैं की माया सदैव जीवित रहती है, जीव जन्म लेते हैं और मरते हैं. माया नए नए शिकार ढूंढ लेती है. इसलिए माया को समझ कर इससे दूर रहना चाहिए. भाव है की ज्ञान के आधार पर ही माया के फंद से मुक्त हुआ जा सकता है.

माया के विषय में कबीर साहेब के विचार (माया को अंग) Maaya ko Ang (Kabir) Hindi Meaning
 
कबीर माया पापणी, फंध ले बैठी हाटि ।
सब जग तौ फंधै पड्या,गया कबीरा काटि ॥
kabeer maaya paapanee, phand le baithee haat.
sab jag tau phandai padya, gaya kabeera kaati.


कबीर दोहे का हिंदी मीनिंग : माया ने अपना जाल फैला रखा है और बाजार में अपना फंदा डाल रखा है. जगत के लोग इसके फंदे में फंस जाते हैं अपने जीवन को समाप्त कर लेते हैं. लेकिन एक कबीर साहेब हैं जिन्होंने अपने ज्ञान के आधार पर माया और इसके भ्रम को समझा है, जो इसके जाल को काट पाने में सक्षम हैं. भाव है की ज्ञान के आधार पर ही इसके फंद से मुक्त हो गए हैं.

कबीर माया मोहनी, जैसी मीठी खांड
सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड
Kabeer Maaya Mohanee, Jaise Meethee Khand
Sataguru Kee Krpa Bhee, Nahin Too Karata Bhaand


कबीर दोहे का हिंदी मीनिंग : माया के विषय में कबीर साहेब ने वाणी दी है की माया मीठी है, जैसे मीठी खांड. यह जीव को अपने और आकर्षित करती रहती है. 

माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर
आसा त्रिष्णां ना मुई, यों कहि गया कबीर
Maya Muyi Na Man Mua, Mari Gaya Sharir,
Aasha Trishna Na Muyi Yo Hai Gaya Kabir.


कबीर दोहे का हिंदी मीनिंग : सतगुरु की कृपा से माया के भ्रम जाल का बोध होता है. सतगुरु कृपा से माया का बोध हुआ नहीं तो यह भांड की तरह से विचित्र प्रदर्शन करती और जीवन को व्यर्थ कर देती. माया के भ्रम के जाल में फंसकर जीव तरह तरह से चाकरी करता है. अपनी इच्छाओं / लालसाओं में पड़कर उसे कई प्रकार के समझौते करने पड़ते हैं. आशा और तृष्णा कभी मरती नहीं है, यह तन / शरीर अवश्य ही एक रोज समाप्त हो जाना है.

त्रिसणा सींची ना बुझै, दिन दिन बढती जाइ
जवासाँ के रूख़ ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ
Trisana Seenchee Na Bujhai, Din Din Badhatee Jay
Javaasaan Ke Rookh Jyoon, Ghan Men Kumilai


कबीर दोहे का हिंदी मीनिंग : आशा और तृष्णा कभी समाप्त नहीं होती है, इसे जितना भी पूरा करते हैं यह अधिक रूप से बढती ही चली जाती है. जैसे जवासा का वृक्ष अधिक वर्षा होने पर कुम्हला जाता है लेकिन मरता नहीं है, ऐसे ही तृष्णा को सींचने से वह समाप्त नहीं होती बल्कि अधिक रूप से बढती है.

भाई, कोई सतगुरू सन्त
भाई, कोई सतगुरू सन्त कहावे,
नैनन अलख लखावै।
प्राण पूज्य किरियाते न्यारा, सहज समाधि सिखावै।
द्वार न रूंधे पवन न रोके, नहि भवखण्ड तजावै।
यह मन जाय यहाँ लग जब ही, परमात दरसावै।
करम करै नि-करम रहै जो, ऐसी जुगत लखावै।
जाग पियरी अब का सोवे।
जाग पियरी अब का सौंवे, रैन गई दिन काहे को खोवे.
जाग पियरी अब का सोवे।

जिन जागा तीन मानिक पाया, ते बौरी सब सोवे गवाया.
पिया तेरे चतुर तू मूरख नारी, कबहूं ना पिया की सेज संवारी
जाग पियरी अब का सौंवे, रैन गई दिन काहे को खोवे.
जाग पियरी अब का सोवे।

तें बौरी, बौरापन किन्ही, भर जोबन पिया अपन ना चिन्हीं.
जाग देख पिया सेज ना तेरे, तोरी छाडी उठी गये सवेरे
कहें कबीर सोइ धुन जागे, शब्द बान उर अंतर लागे.
जाग पियरी अब का सौंवे, रैन गई दिन काहे को खोवे.
जाग पियरी अब का सोवे। 
 
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