कर गुजरान ग़रीबी (फ़कीरी) में साधो भाई लिरिक्स Kar Gujran Fakeeri Me Sadho Bhai Lyrics


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इस भजन के कुछ शब्दार्थ जिनके अर्थ हैं -
शब्दार्थ :
गुजरान : गुज़ाराँ करना / समय व्यतीत करना (گزاراں) To pass or spend time, to pass life, to live, to subsist; to contrive to live,
ग़रीबी : غريبی g̠arībī poverty, indigence, wretchedness; meekness, mildness, lowliness, humility गरीबी से आशय है फक्क़ड़पन से / जीवन यापन के लिए कम से कम भौतिक सुख सुविधाओं का उपयोग।
मगरूरी : مغروري mag̠rūrī fr. mag̠rūr مغروري mag̠rūrī (fr. mag̠rūr), Pride, arrogance, haughtiness. घमण्ड /अहम् भाव का प्रदर्शन।
नेवर : पाँवों में बाँधा जाने वाला आभूषण जैसे की पाजेब / स्त्रियों द्वारा पैरों में पहना जाने वाला एक आभूषण; नुपुर; घुँघरू/ पाज़ेबپازیب an ornament worn on the feet or ankles, ankle bells पाँव का एक आभूषण, अंदुक, नूपुर।

कर गुजरान ग़रीबी (फ़कीरी) में साधो भाई लिरिक्स Kar Gujran Fakeeri Me Sadho Bhai Lyrics-Shabnam Veermani

कर गुजरान ग़रीबी में, साधो भाई,
मगरूरी क्यों करता,
कर गुजरान फ़कीरी में, साधो भाई,
मगरूरी क्यों करता,

जोगी होकर जटा बढ़ावे,
नंगे पाँव क्यों फिरता है रे भाई,
गठड़ी बाँध सर ऊपर धर ले,
यूँ क्या मालिक मिलता,
कर गुजरान ग़रीबी में, साधो भाई,
मगरूरी क्यों करता,

मुल्ला होकर बाँग पुकारे,
क्या तेरा साहिब बहरा है रे भाई,
चींटी के पाँव में नेवर बाजे,
सो भी साहिब सुनता,
कर गुजरान ग़रीबी में, साधो भाई,
मगरूरी क्यों करता,

धरती आकाश गुफ़ा के अंदर,
पुरुष एक वहाँ रहता है रे भाई,
हाथ ना पाँव रूप नहीं रेखा,
नंगा होकर फिरता,
कर गुजरान ग़रीबी में, साधो भाई,
मगरूरी क्यों करता,

जो तेरे घट में जो मेरे घट में,
सबके घट में एक है रे भाई,
कहे कबीर सुनो भाई साधो,
हर जैसे को तैसा,
कर गुजरान ग़रीबी में, साधो भाई,
मगरूरी क्यों करता,
कर गुजरान फ़कीरी में, साधो भाई,
मगरूरी क्यों करता, 

इस भजन के विषय में /हिंदी मीनिंग: यह भजन जो मूल रूप से मालवा प्रदेश का है और प्रह्लाद सिंह टिपानिया जी के द्वारा गाया गया है और यही भजन शबनम जी के द्वारा बड़े ही खूबसूरत ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस भजन का मूल भाव है की मालिक जिस रूप में रखे वहीँ हमारे लिए उचित है उसी में गुजारा करना चाहिए जो दाता ने दिया है। सहज में जीवन निर्वाह ही साधु जीवन का असली कुंजी है। जो प्राप्त है वह प्रयाप्त है। अहम् कैसा ? अहम् का त्याग करने से ही जीवन की जटिलताएँ कम होने लगती हैं। भक्ति मार्ग पर चलने वाले लोगों को चेताते हुए साहेब की वाणी है की जोगी होने / साधू होने का यह अर्थ नहीं है की तुम बाल बढ़ा लो ! नंगे पाँव फिरना कहाँ की समझदारी है और गठड़ी बाँध कर समाज का त्याग कर देने से, समाज से पलायन कर देने से क्या ईश्वर की प्राप्ति होती है ?
 
तात्कालिक समाज में और आज भी भक्ति को समाज से हट कर माना जाता है जिस पर साहेब का व्यंग्य है की बाल बढ़ा लेने, नंगे पाँव रहने और समाज का त्याग कर देने से ईश्वर की प्राप्ति नहीं होने वाली है। वहीँ दूसरी तरफ मुस्लिम धर्म के लोगों में व्याप्त पाखण्ड और बाह्याचार पर व्यंग है की जोर जोर से आवाज लगाने की कहाँ आवश्यकता है ! क्या मालिक बहरा है ! नहीं। ईश्वर तो चींटी के पांवों में बंधे नेवर (घुंघरूं ) को भी सुन सकता है फिर बाँग का क्या औचित्य है ! दूसरी तरफ साहेब ने ईश्वर के रूप रंग के विषय में वर्णन किया है की उसके हाथ पाँव रूप रेखा कुछ भी नहीं है वह तो महसूस किया जा सकता है क्योंकि वह निराकार है, उसका कोई आकार नहीं है।

उसे कहाँ ढूंढ रहे हो ! मंदिर मस्जिद में !तीर्थ में, मक्का में ! कहाँ वह तो घट में ही विराजमान है उसे पहचानों -सत साहेब !


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1 टिप्पणी

  1. Please replace the above video with the lyrical video by सद्गुरु कबीर साहेब
    https://www.youtube.com/watch?v=8tj-JiSPs-4