भीष्मस्तुती अर्थ और महत्त्व रमेश भाई ओझा
॥ भीष्मस्तुती ॥
(श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथम स्कन्धे युधिष्ठिरराज्यप्रलम्भः नाम नवमोऽध्यायः ॥)
श्री भीष्म उवाच -
इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वत पुङ्गवे विभूम्नि ।
स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः ॥ ३२॥
त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं रविकरगौरवराम्बरं दधाने ।
वपुरलककुलावृताननाब्जं विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या ॥ ३३॥
युधि तुरगरजोविधूम्रविष्वक्कचलुलितश्रमवार्यलंकृतास्ये ।
मम निशितशरैर्विभिद्यमानत्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा ॥ ३४॥
सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य ।
स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा हृतवति पार्थ सखे रतिर्ममास्तु ॥ ३५॥
व्यवहित पृथनामुखं निरीक्ष्य स्वजनवधाद्विमुखस्य दोषबुद्ध्या।
कुमतिमहरदात्मविद्यया यश्चरणरतिः परमस्य तस्य मेऽस्तु ॥ ३६॥
स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञा मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थः ।
धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलत्गुः हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीयः ॥ ३७॥
शितविशिखहतोविशीर्णदंशः क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे ।
प्रसभमभिससार मद्वधार्थं स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ॥ ३८॥
विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे धृतहयरश्मिनि तच्छ्रियेक्षणीये।
भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षोः यमिह निरीक्ष्य हताः गताः सरूपम् ॥ ३९॥
ललित गति विलास वल्गुहास प्रणय निरीक्षण कल्पितोरुमानाः ।
कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धाः प्रकृतिमगन् किल यस्य गोपवध्वः ॥ ४०॥
मुनिगणनृपवर्यसंकुलेऽन्तः सदसि युधिष्ठिरराजसूय एषाम् ।
अर्हणमुपपेद ईक्षणीयो मम दृशि गोचर एष आविरात्मा ॥ ४१॥
तमिममहमजं शरीरभाजां हृदिहृदि
धिष्टितमात्मकल्पितानाम् ।
प्रतिदृशमिव नैकधाऽर्कमेकं समधिगतोऽस्मि विधूतभेदमोहः ॥ ४२॥
कृष्ण एवं भगवति मनोवाग्दृष्टिवृत्तिभिः ।
आत्मन्यात्मानमावेश्य सोऽन्तः श्वासमुपारमत् ॥ ४३॥
॥ इति॥
भीष्म स्तुति || Bhishm Stuti || by P.P.Sant Shri Ramesh Bhai Oza Ji
"इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वत पुङ्गवे विभूम्नि। स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः॥"
"अब मृत्यु के समय, मेरी यह बुद्धि, जो अनेक प्रकार के साधनों का अनुष्ठान करने से अत्यंत शुद्ध एवं कामनारहित हो गई है, उसे मैं यदुवंश-शिरोमणि, अनंत भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित करता हूँ, जो सदा अपने आनंदमय स्वरूप में स्थित रहते हुए, कभी-कभी लीला करने की इच्छा से प्रकृति को स्वीकार कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टि-प्रवाह चलता है।"
"त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं रविकरगौरवराम्बरं दधाने। वपुरलककुलावृताननाब्जं विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या॥"
अर्थ-
"जो तीनों लोकों को मोहित करने वाले हैं, जिनका रंग तमाल वृक्ष के समान श्याम है, जो सूर्य की किरणों के समान गौरवर्ण वाले पीतांबर (पीले वस्त्र) धारण किए हुए हैं, जिनका मुख कमल के समान है और घुंघराली अलकों से आच्छादित है, उन अर्जुन के सखा श्रीकृष्ण में मेरी निष्कलंक भक्ति हो।"
भीष्मस्तुति महाभारत के प्रमुख पात्र भीष्म पितामह द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की प्रशंसा में की गई एक स्तुति है, जिसे उन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में प्रस्तुत किया था। इस स्तुति में भीष्म पितामह ने श्रीकृष्ण के दिव्य स्वरूप, उनकी लीलाओं और उनके अनंत गुणों का वर्णन किया है। यह स्तुति भक्तों के लिए भगवान की महिमा का स्मरण करने का एक माध्यम है और उन्हें श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। भीष्मस्तुति का पाठ भक्तों में भक्ति, समर्पण और आध्यात्मिक ज्ञान को बढ़ावा देता है, जिससे वे जीवन के अंतिम सत्य को समझने में सक्षम होते हैं।
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