एजी काल चक्र चक्की चले बहुत दिवस और रात एजी अगुण सगुण दोई पाटला तामे जीव पिसाय एक दिन ऐसा होयगा एक दिन ऐसा होयगा कोउ कहूँ का नाय घर की नारी को कहे और तन की नारी जाय तो मंदिर माहीं झलकती एजी मंदिर माहीं झलकती ने दिया की सी जोत हंस बटाऊ चली गया, और काड़ी घड़ की कोय
अब थारो कईं पतियारो, रे परदेसी............हे रे हाँ, अब थारो कईं पतियारो, ओ दूरादेसी...........हे रे हाँ, मायला जब लग तेल दिया रे माई बाती हे रे हाँ.... मायला जब लग तेल दिया रे माई बाती हे रे हाँ.... थारा मंदरिया में होयो उजियारो, रे परदेसी........हे रे हाँ,
मायला खूटी गयो तेल, बुझन लागी बाती........हे रे हाँ, मायला खूटी गयो तेल, बुझन लागी बाती........हे रे हाँ, थारा मंदरिया में होयो उजियारो, रे परदेसी....रे परदेसी.......हे रे हाँ,
मायला ढसी गयी भीत पड़न लागी टाटी...........हे रे हाँ, मायला ढसी गयी भीत पड़न लागी टाटी...........हे रे हाँ, थारी टाटी में मिल गयी माटी, रे परदेसी............हे रे हाँ,
मायला घाट घड़ी को यो सांटो रे मीठो रे परदेसी...........हे रे हाँ, मायला घाट घड़ी को यो सांटो रे मीठो रे परदेसी.........हे रे हाँ, यो तो गांठ गांठ रस न्यारो रे परदेसी........हे रे हाँ,
मायला उठी चलो बणियो, सूनी आ थारी हाठड़ी.....हे रे हाँ,
मायला उठी चलो बणियो, सूनी आ थारी हाठड़ी.........हे रे हाँ, इ तो तालो दई गयो ने खूंची लई गयो रे रे परदेसी.......हे रे हाँ, अब थारो कईं पतियारो, रे परदेसी......हे रे हाँ,
मायला कहें हो कबीर साह, सुनो रे भाई साधो...हे रे हाँ, मायला कहें हो कबीर साह, सुनो रे भाई साधो...हे रे हाँ, थारो हंसो अमरापुर जासी रे परदेसी......हे रे हाँ, अब थारो कईं पतियारो, रे परदेसी............हे रे हाँ, अब थारो कईं पतियारो, ओ दूरादेसी..........हे रे हाँ
Kabir bhajan :- अब थारो कई पतियारो रे Ab Tharo Kayi Patiyaro Re Pardesi,,,by prahlad singh tipaniya
कोई सिहांसन चढ़ चले, कोई बंधे ज़ंजीर माटी कहे कुम्हार से, क्या रोंदे तू मोहे? एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदूंगी तोहे समरथ नाम कबीर, सतगुरु नाम कबीर लकड़ी कहे लुहार से, क्या जारे तू मोहे? एक दिन ऐसा आएगा, मैं जारूंगी तोहे अब थारो कईं पतियारो, रे परदेसी? ओ दूरादेसी मायला ढसी गयी भीत पड़न लागी टाटी थारी टाटी में मिल गयी माटी, रे परदेसी अब थारो कईं पतियारो, रे परदेसी? मायला घाट घड़ी को सांटो रे मीठो यो तो गांठ गांठ रस न्यारो रे परदेसी अब थारो कईं पतियारो, रे परदेसी? मायला जब लग तेल दिया रे मांहि बाती थारा मंदरिया में होयो उजियारो, रे परदेसी अब थारो कईं पतियारो, रे परदेसी? मायला खूटी गयो तेल, बुझन लागी बाती थारा मंदरिया में होयो अंधियारो, रे परदेसी अब थारो कईं पतियारो, रे परदेसी? मायला उठी चलो बणियो, सूनी आ थारी हाठड़ी इ तो तालो दई गयो ने खूंची लई गयो, रे दूरादेसी अब थारो कईं पतियारो, रे परदेसी? मायला कहें हो कबीर साह, सुनो रे भाई साधो थारो हंसो अमरापुर जासी रे परदेसी अब थारो कईं पतियारो, रे परदेसी?
नर पछिताहुगे अंधा। चेति देखि नर जमपुरि जैहै, क्यूँ बिसरौ गोब्यंदा॥टेक॥ गरभ कुंडिनल जब तूँ बसता, उरध ध्याँन ल्यो लाया।
उरध ध्याँन मृत मंडलि आया, नरहरि नांव भुलाया॥ बाल विनोद छहूँ रस भीनाँ, छिन छिन बिन मोह बियापै॥ बिष अमृत पहिचांनन लागौ, पाँच भाँति रस चाखै॥ तरन तेज पर तिय मुख जोवै, सर अपसर नहीं जानैं॥ अति उदमादि महामद मातौ, पाष पुंनि न पिछानै॥ प्यंडर केस कुसुम भये धौला, सेत पलटि गई बांनीं॥ गया क्रोध मन भया जु पावस, कांम पियास मंदाँनीं॥ तूटी गाँठि दया धरम उपज्या, काया कवल कुमिलांनां॥ मरती बेर बिसूरन लागौ, फिरि पीछैं पछितांनां॥ कहै कबीर सुनहुं रे संतौ, धन माया कछू संगि न गया॥ आई तलब गोपाल राइ की, धरती सैन भया लोका मति के भोरा रे। जो कासी तन तजै कबीर, तौ रामहिं कहा निहोरा रे॥टेक॥ तब हमें वैसे अब हम ऐसे, इहै जनम का लाहा। ज्यूँ जल मैं जल पैसि न निकसै, यूँ ढुरि मिलै जुलाहा॥ राम भगति परि जाकौ हित चित, ताकौ अचिरज काहा॥ गुर प्रसाद साध की संगति, जग जीते जाइ जुलाहा॥ कहै कबीर सुनहु रे संतो, भ्रमि परे जिनि कोई॥ जसं कासी तस मगहर ऊसर हिरदै राम सति होई॥
Kabir Bhajan Lyrics in Hindi,Prahlad Singh Tipaniya Bhajan Lyrics in Hindi
कबीर साहेब की सुंदर वाणी है जो मृत्यु के विषय में जीवात्मा को सचेत करती है। तुम तो यहाँ के नहीं हो, तुम्हे तो एक रोज जाना ही है, तुम्हारा पता क्या है। भाव है की जिस माया के चक्कर में पड़कर जीवात्मा उलझी रहती है और जीवन के उद्देश्य को विस्मृत करके इस जगत को ही स्थाई घर समझने लग जाती है। इस भरम के वश में होकर ही वह अनेकों पाप कर्मों को करता है और अंत समय में कोई धन उसका साथ नहीं निभाता है। मृत्यु अंतिम सत्य है लेकिन सुन्दर भी, जीवन जैसा भी हो अच्छा या बुरा यह एक रोज समाप्त हो जाना है और फिर कहीं पर नवउदय होना होता है।
अब थारो काई पतियारो, रै परदेसी, ओ दूरादेसी।
मायला धंसी गई भीत, पड़न लागी टाटी थारी टाटी में मिल गयी माटी, रै परदेसी, अब थारो काई पतियारों, रे परदेसी।
मायला जब लग तेल, दिया रे माहीं बाती, थारा मंदरिया में होयो उजियारो, रै परदेसी, अब थारो काई पतियारों, रे परदेसी।
मायला खूटी गयो तेल, बुझन लागी बाती, थारा मंदरिया में होयो अंधियारो, रै परदेसी, अब थारो काई पतियारों, रे परदेसी।
मायला उठी चलो बणियो, सूनी आ थारी हाठड़ी इ तो तालो दई गयो, ने खूंची लई गयो, रे दूरादेसी रै परदेसी, अब थारो काई पतियारों, रे परदेसी।
मायला कहें हो कबीर साह, सुनो रे भाई साधो थारो हंसो अमरापुर जासी, रे परदेसी, अब थारो कईं पतियारो, रै परदेसी, अब थारो काई पतियारों, रे परदेसी।
अब थारो काई पतियारो, रै परदेसी ओ दूरादेसी: अब
तुम्हारा क्या पता ठिकाना है, तुम तो दूर देश के वासी हो। भाव है की
तुम्हारा क्या भरोसा है तुम तो यहाँ के नहीं हो दूर देश के हो। मायला धंसी गई भीत, पड़न लागी टाटी : अंदर
की दीवार धँस गई है, और छत टूटकर गिरने लगी है। भीत-छत। पड़न लागी -गिरने
लगी है, खडित होकर। टाटी-छत। भाव है की तुम्हारी काया रूपी छत गिरने लगी
है। थारी टाटी में मिल गयी माटी : टाटी टूटकर मिटटी में मिल गई है। मायला जब लग तेल, दिया रे माहीं बाती : हृदय
/चित्त, मन को मायला कहकर सम्बोधित करते हुए वाणी है की जब तक तुम्हारे
दिए (चित्त में) में तेल है, बाती (प्राण) है तब तक उजाला हुआ (जीवन का
संचार हुआ ) . मायला खूटी गयो तेल, बुझन लागी बाती : अंदर के दिए में तेल कम पड़ने लगा, समाप्त हो गया और बाती बुझने लगी। थारा मंदरिया में होयो अंधियारो : तुम्हारे काया रूपी भवन में अँधेरा होने लगा है। मायला उठी चलो बणियो, सूनी आ थारी हाठड़ी : अंदर
का वणिक / बाणिया (व्यापार करने वाला ) उठ चला है और दूकान (हाट) सूनी पड़ी
है। भाव है की जब प्राण वायु समाप्त हो जाती है तो काया वीरान हो जाती है।
इ तो तालो दई गयो, ने खूंची लई गयो : ये तो दूकान के ताला लगा गया है और कुंजी/चाबी अपने साथ ले गया है। मायला कहें हो कबीर साह : कबीर
साहेब कहते हैं की हृदय के अंदर से आवाज आती है की सुनों भाई साधो,
तुम्हारा हंसा (जीवात्मा) स्वर्ग में जायेगी। अमरापुर -देवलोक।