त्रिष्णाँ सींची नाँ बुझे दिन दिन बढ़ती जाइ मीनिंग Trishna Sinchi Na Meaning Kabir Dohe, Kabir Ke Dohe Hindi Meaning (Hindi Arth / Bhavarth)
त्रिष्णाँ सींची नाँ बुझे, दिन दिन बढ़ती जाइ।जबासा के रुंख ज्यूँ, घण मेहाँ कुमिलाइ॥
Trishna Seenchi Na Bujhe, Din Din Badhati Jaai,
Jabaasa Ke Runkh Jyu, Ghan Meha Kumilaai.
त्रिष्णाँ सींची नाँ बुझे : तृष्णा, माया सींचने से बुझती नहीं है, शांत नहीं होती है.
दिन दिन बढ़ती जाइ : दिन प्रतिदिन बढती ही चली जाती है.
जबासा के रुंख ज्यूँ : जवासा के वृक्ष की भाँती.
घण मेहाँ कुमिलाइ : अधिक बरसात में कुम्हला जाती है.
त्रिष्णाँ : तृष्णा, मोह माया.
सींची : सींचने पर, पूर्ति करने पर.
नाँ बुझे : बुझती नहीं है, शांत नहीं होती है.
दिन दिन : लगातार, अनवरत.
बढ़ती जाइ : वृधि करती जाती है.
जबासा : जवासा का पादप (यावासक) जवासा का एक पादप होता है जो बरसात के पानी के संपर्क में आने पर अपनी पत्तियों का त्याग कर देता है.
रुंख : वृक्ष.
ज्यूँ : जैसे.
घण : अधिक.
मेहाँ : अधिक बरसात से.
कुमिलाइ : कुम्हला जाना, मुरझा जाना.
दिन दिन बढ़ती जाइ : दिन प्रतिदिन बढती ही चली जाती है.
जबासा के रुंख ज्यूँ : जवासा के वृक्ष की भाँती.
घण मेहाँ कुमिलाइ : अधिक बरसात में कुम्हला जाती है.
त्रिष्णाँ : तृष्णा, मोह माया.
सींची : सींचने पर, पूर्ति करने पर.
नाँ बुझे : बुझती नहीं है, शांत नहीं होती है.
दिन दिन : लगातार, अनवरत.
बढ़ती जाइ : वृधि करती जाती है.
जबासा : जवासा का पादप (यावासक) जवासा का एक पादप होता है जो बरसात के पानी के संपर्क में आने पर अपनी पत्तियों का त्याग कर देता है.
रुंख : वृक्ष.
ज्यूँ : जैसे.
घण : अधिक.
मेहाँ : अधिक बरसात से.
कुमिलाइ : कुम्हला जाना, मुरझा जाना.
कबीर साहेब की वाणी है की तृष्णा सींचने पर, तृष्णा की पूर्ति करने पर कम नहीं होती है अपितु बढती ही चली जाती है. जैसे जवासा का वृक्ष होता है वह अधिक बरसात के होने पर कुम्हला जाता है ऐसे ही जीवात्मा का भी माया की पूर्ति होने पर पतन ही होता है. तृष्णा को यदि जवासा का वृक्ष मान लिया जाए तो वह माया रूपी भोग के जल से कभी शांत नहीं होने वाला है, वह अनवरत रूप से बढ़ता ही चला जाता है. अतः जैसे जवासा का वृक्ष अधिक बरसात, बरसात के पानी से मुरझा जाता है, कुम्हला जाता है ऐसे ही तृष्णा को शांत करने के लिए माया रूपी जल का उपयोग करने पर वह अधिकता से बढ़ने लगती है.
अतः इस साखी का मूल भाव है की तृष्णा, लालच, मोह और माया का जितना भी भोग किया जाता है उतना ही यह अधिकता से बढती चली जाती है.
अतः इस साखी का मूल भाव है की तृष्णा, लालच, मोह और माया का जितना भी भोग किया जाता है उतना ही यह अधिकता से बढती चली जाती है.
अर्क जवास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ॥
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी॥
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी॥
तृष्णा को शांत करने के लिए इसका त्याग करना ही उचित है और इसके त्याग के उपरान्त व्यक्ति को भक्ति मार्ग पर आगे बढना चाहिए. जितना तृष्णा से दूर होगा उतना ही जीव भक्ति मार्ग को अधिकता से प्राप्त कर पायेगा.
भजन श्रेणी : कबीर के दोहे हिंदी मीनिंग