उलझी लट आके सुलझा जा मोहन भजन
उलझी लट आके,
सुलझा जा रे मोहन
मेरे हाथ मेहंदी लगी।
उलझी लट आके,
सुलझा जा रे मोहन
मेरे हाथ मेहंदी लगी।
मेरे हाथों में मेहंदी लगी,
मेरे हाथों में मेहंदी लगी,
उलझी लट आके,
सुलझा जा रे मोहन
मेरे हाथ मेहंदी लगी।
कानों का कुण्डल,
गिर गया मोहन,
कानों का कुण्डल,
गिर गया मोहन,
अपने हाथ आके,
पहना जा रे मोहन,
मेरे हाथ मेहंदी लगी।
उलझी लट आके,
सुलझा जा रे मोहन
मेरे हाथ मेहंदी लगी।
उलझी लट आके,
सुलझा जा रे मोहन
मेरे हाथ मेहंदी लगी।
सुलझा जा रे मोहन
मेरे हाथ मेहंदी लगी।
उलझी लट आके,
सुलझा जा रे मोहन
मेरे हाथ मेहंदी लगी।
मेरे हाथों में मेहंदी लगी,
मेरे हाथों में मेहंदी लगी,
उलझी लट आके,
सुलझा जा रे मोहन
मेरे हाथ मेहंदी लगी।
कानों का कुण्डल,
गिर गया मोहन,
कानों का कुण्डल,
गिर गया मोहन,
अपने हाथ आके,
पहना जा रे मोहन,
मेरे हाथ मेहंदी लगी।
उलझी लट आके,
सुलझा जा रे मोहन
मेरे हाथ मेहंदी लगी।
उलझी लट आके,
सुलझा जा रे मोहन
मेरे हाथ मेहंदी लगी।
भजन श्रेणी : कृष्ण भजन (Krishna Bhajan)
Ulajhi Lat ake,
Sulajha Ja Re Mohan
Mere Hath Mehandi Lagi.
Ulajhi Lat ake,
Sulajha Ja Re Mohan
Mere Hath Mehandi Lagi.
Mere Hathon Mein Mehandi Lagi,
Mere Hathon Mein Mehandi Lagi,
Ulajhi Lat ake,
Sulajha Ja Re Mohan
Mere Hath Mehandi Lagi.
Sulajha Ja Re Mohan
Mere Hath Mehandi Lagi.
Ulajhi Lat ake,
Sulajha Ja Re Mohan
Mere Hath Mehandi Lagi.
Mere Hathon Mein Mehandi Lagi,
Mere Hathon Mein Mehandi Lagi,
Ulajhi Lat ake,
Sulajha Ja Re Mohan
Mere Hath Mehandi Lagi.
“मेरे हाथ मेहंदी लगी” के बीच राधा का यह कहना मानो एक मधुर संकेत है कि अब स्नेह की सेवा का समय है, अब लज्जा नहीं, अपनापन बोलता है। “उलझी लट सुलझा जा रे मोहन” केवल केश की बात नहीं, बल्कि उस मन की भी है जो कान्हा के प्रेम में उलझा है और उसी के स्पर्श से सुलझना चाहता है। यह संवाद उस आत्मीयता का प्रतीक है जहाँ ईश्वर और प्रेम दोनों एकाकार होते हैं—एक आह्वान है, जिसमें स्नेह, शरारत और भक्ति तीनों का मेल है।
“कानों का कुण्डल गिर गया मोहन” — यह पंक्ति उस दृश्य की कोमलता को और बढ़ा देती है। राधा का यह कहना किसी रीति की तरह नहीं, बल्कि प्रेम के स्वाभाविक प्रवाह की तरह है, जहाँ हर छोटी घटना, हर स्पर्श ईश्वरीय संबंध का विस्तार बन जाती है। यह भक्ति का वह रूप है जहाँ ईश्वर भक्त से नहीं, सखी से संवाद करते हैं; जहाँ पूजा नहीं, अपनापन है; और जहाँ ‘सुलझा जा रे मोहन’ में प्रेम अपने सबसे कोमल, सबसे सच्चे स्वर में गूंजता है।
“कानों का कुण्डल गिर गया मोहन” — यह पंक्ति उस दृश्य की कोमलता को और बढ़ा देती है। राधा का यह कहना किसी रीति की तरह नहीं, बल्कि प्रेम के स्वाभाविक प्रवाह की तरह है, जहाँ हर छोटी घटना, हर स्पर्श ईश्वरीय संबंध का विस्तार बन जाती है। यह भक्ति का वह रूप है जहाँ ईश्वर भक्त से नहीं, सखी से संवाद करते हैं; जहाँ पूजा नहीं, अपनापन है; और जहाँ ‘सुलझा जा रे मोहन’ में प्रेम अपने सबसे कोमल, सबसे सच्चे स्वर में गूंजता है।
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